Wednesday, July 13, 2016

ग़़ज़लियत के बिना ग़ज़ल कैसी? +दर्शन बेज़ार

ग़़ज़लियत के बिना ग़ज़ल कैसी?

+दर्शन बेज़ार
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ग़ज़ल अपनी सुकोमलता को हृदय की गहराइयों तक पहुंचाने की असीम क्षमता के बल पर उर्दू मुशायरों में ही नहीं, हिन्दी कवि-सम्मेलनों में भी सभी विधाओं को पीछे छोड़ती हुई लोकप्रियता के शिखर तक जा पहुंची है। प्रत्येक हिन्दुस्तानी को आसानी से समझ आ सकने वाला उसका व्याकरण भी इस दिशा में अपनी भूमिका निभाता रहा है। जटिल शब्दों को दरकिनार रखते हुए कवियों-शायरों ने अमीर खुसरो और कब़ीर की बोली-भाषा का प्रयोग करके आज इस विधा को जन-जन तक पहुंचा दिया है। यदि हम हिन्दी कवि सम्मेलनों के इतिहास पर गौर करें तो सहज ही स्वीकार करेंगे कि लगभग 40-50 वर्ष पूर्व गीतकार ही अधिक संख्या में मंच की शोभा बढ़ाते थे, आज वही स्थान ग़ज़लकारों को मिल गया है। गीतकार के रूप में प्रसिद्ध पाए और एक लम्बा मंचीय-युग जीने वाले वरिष्ठ  साहित्यकार भी ग़ज़ल लिखने लगे हैं। स्वीकार ही करना पड़ेगा कि बाहर से आई विधा ग़ज़लसभी विधाओं को पीछे छोड़ती हुई बहुत आगे निकल चुकी है। पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं को ग़ज़ल नाम से प्रकाशित करवाना आवश्यक-सा हो गया है। ग़ज़ल विधा कहां से चलकर कहां तक आ पहुंची है, लगभग 30-35 वर्षों से लगातार शोध हो रहे हैं। विद्वान शोधार्थी एवं शोधाचार्य इस विषय पर बहुमूल्य सामग्री भी प्रस्तुत कर रहे हैं। ग़ज़ल के कथ्य एवम् शिल्प को 19 निर्धारित बह्रों में प्रेम की असीम अभिव्यक्ति के साथ विद्वानों ने इसे निम्नानुसार परिभाषित किया है-
ख्वाजा अहमद फारुखी के अनुसार-‘‘जो कराह [गि़जाल] हिरन को तीर चुभने के बाद बेकसी में निकलती है वह ग़ज़ल है।’’
फिराक गोरखपुरी के अनुसार-‘‘ग़ज़ल का मिज़ाज समर्पणवादी होता है। यह दर्दभरी और दिल से निकलने वाली आवाज है।’’
डॉ. नगेन्द्र के अनुसार-‘‘ग़ज़ल उर्दू का सर्वाधिक प्रसिद्ध और सरस भेद है, जिसमें रहस्यानुभूति, मस्ती, रिन्दी, धार्मिक विद्रोह आदि स्थाईभाव हैं।’’
प्रायः मंचों पर कही जाने वाली और हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली कथित ग़ज़लें उक्त पैमाने पर अपनी मूल परिभाषा से बहुत हटकर हैं। न तो उनका स्थाई भाव प्रेमहै और नहीं निर्धारित बह्रों की सीमा  का अनुशासन। जैसा मन में आया रचना लिख दी और ग़ज़ल नाम दे दिया। माना कि आज आम आदमी प्रणय के लिए नहीं, रोटी के लिए अधिक छटपटा रहा है, साहित्यकार भी उसे रोटी की चाहत को शब्दबद्ध कर रहा है, किन्तु उस रचना में ग़ज़ल का आवश्यक प्राणतत्व प्रेमही नहीं है तो वह ग़ज़ल कैसे हुई? उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा प्रकाशित उर्दू-हिन्दी शब्दकोष’, ‘नालन्दा अद्यतन कोषमें सुविज्ञापित प्रेम-मोहब्बत की बातचीतकी परिभाषा, फिराक गोरखपुरी, ख्वाजा अहमद फारूखी और डा. नगेन्द्र द्वारा उद्धृत शब्दावली को किसी उर्दू-एकेडमी, विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग या नामचीन उर्दू के शायर ने खारिज नहीं किया है। ग़ज़ल के  शिल्प में लिखी गई प्रेम-मोहब्बतविहीन हर रचना को उन संस्थानों, विद्वानों ने ग़ज़लनाम से मण्डित कर दिया हो, सार्वजनिक रूप से ऐसा भी अभी तक नहीं हुआ है। ग़ज़ल की मूल परिभाषा और अवधारणा वही है जो 800-900 साल पहले निर्धारित कर दी गई थी। ग़ज़ल की परिभाषा उर्दू साहित्याचार्यों द्वारा प्रतिपादित की गई है। हिन्दी के आचार्यों ने भी उसी प्रकार हिन्दी साहित्य में प्रयुक्त किए जाने वाले विभिन्न छन्दों का विधान निर्धारित किया है। हिन्दी छन्दशास्त्र के अनुसार दोहा तभी दोहा कहलाएगा जबकि ग्यारहवीं और चैबीसवीं मात्रा लघु होगी तथा तेरहवीं मात्रा पर अल्प ठहराव होगा। चौपाई में सोलह मात्राएं किन्तु अन्त में जगण अथवा तगण नहीं आए। इसी प्रकार छन्द विधान अनुसार रोला में चौबीस, गीतिका में छब्बीस, हरिगीतिका में अठाईस तथा अन्त में लघु-गुरु हो। शिल्प के अनुरूप मात्राओं के उपरोक्त अनुशासन परम आवश्यक हैं। कथ्य के दृष्टिकोण से मर्सिया, कसीदे की तरह ग़ज़ल के भी अपने अलग-अलग प्राणतत्व हैं। हिन्दी साहित्य में भी बिरहा, चैती, कज़री, बन्ना-बन्नी, सोहर आदि के अलग-अलग  प्राणतत्व हैं। किसी एक विधा की लोकप्रियता को देखकर दूसरी विधा में घुसपैंठ करना साहित्यिक परम्पराओं की हत्या करना ही होगा। सामाजिक परिवर्तन, विद्रोह, विसंगति-विरोध, कुरीति-मर्दन जैसे कथ्यों पर झकझोरने वाली रचनाओं को भी ग़ज़ल मानना अतार्किक है | बन्नी-बन्ना या कज़री आदि को भी ग़ज़ल इसलिए न मान लिया जाना चाहिए कि ग़ज़ल की लोकप्रियता शिखर पर है।
पदमभूषण नीरजजी, कविवर चन्द्रसेन विराट ने प्रेमतत्व से हटकर और ग़ज़ल की निर्धारित बह्रों से आगे निकलकर सामाजिक सरोकारों के  परिपेक्ष्य में लिखी गई ग़ज़ल जैसी दिखाई पड़ने वाले रचनाओं को गीतिकाऔर मुक्तिकानाम दिया और उन रचनाओं को ग़ज़ल नाम देने से बचते रहे हैं। भले ही तथाकथित ग़ज़ल प्रकाशक उन्हें ग़ज़ल शीर्षक से ही क्यों न छापतें रहे हैं।  

माना कि तेवरी से भले ही तथाकथित हिन्दी ग़ज़लकारों को एलर्जी हो, गीतिका या मुक्तिका से क्यों एलर्जी होती है? हमारे विद्वान हिन्दी ग़ज़ल समर्थक मित्रों ने अपनी-अपनी वाणी के स्तर के अनुरूप हम तेवरीकार साथियों पर अनेक विशेषणों के प्रयोग किए हैं। शब्दों के अभाव में वे कुछ कुछ स्तरविहीन विशेषण प्रयोग करते रहे हैं। शायद हमारे उन मित्रों को लोकप्रियता में बने रहने के उद्देश्य से ही ग़ज़लनाम को बार-बार दोहराते रहना पड़ता है जो उनकी सामयिक मजबूरी भी हो सकती है। विद्वान साथियों-पाठकों के समक्ष हम अपना दृष्टिकोण रख रहे हैं, आशा है वे हमें अपनी सहमति असहमति से अवश्य अवगत कराएगें।

तेवरी काव्यान्दोलन समय की आवश्यकता +दर्शन बेज़ार

तेवरी काव्यान्दोलन समय की आवश्यकता

+दर्शन बेज़ार
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शोषित की पीड़ा को व्यक्त करती हुई, दबंगों के अत्याचार के खिलाफ खुलकर सामने आने वाली कविता को नवें दशक के प्रारंभ में आज से लगभग तीस वर्ष पूर्व जन-जन तक पहुंचाने वाली विधा को एक नया नाम दिया गया तेवरी। तेवरी की प्रथम वर्षगांठ पर तेवरी आन्दोलन का घोषणापत्र दि. ग्यारह जनवरी 1982 को प्रसारित किया गया। इस घोषणा पत्र में तेवरी के कथ्य, शिल्प, रचनाधर्मिता, छन्द विन्यास आदि पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया और बतलाया गया कि तेवरी कोई वाद न होकर काव्य की एक स्वतंत्र विधा है। इससे नए नाम पर साहित्य क्षेत्र में एक बहस छिड़ गई, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में यह बहस चर्चा का विषय भी बनी।
कई एक साहित्यकारों ने तेवरी आन्दोलन और तेवरी नाम त्याग देने के लिए कई एक तर्क दिए गए, और उन्होंने स्वयं को जनसापेक्ष कविताओं का अगुआ रचनाकार बतला कर तेवरीकारों से गुस्से में अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं।
औरंगजेब के कार्यकाल तक भारतवर्ष संसार का सबसे सम्पन्न एवं सुसंस्कृत देश रहा। सर सुन्दरलाल ने भारत के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि अकबर के कार्यकाल हमें जहां आगरा, लाहौर, पाटलिपुत्र, कन्नौज, बिठूर के नगरों में रातदिन जगमगाहट रहती थी | उस समय लन्दन सहित यूरोप के कई नगरों में लकड़ी तथा मिट्टी के मकान थे। तुल्झामैन वाकर नामक विदेशी महिला उपन्यासकार ने अपने नए उपन्यास में भी इसी कथन को दुहराया है। वही देश भारत अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में यूरोपियन व्यापारी विदेशी लुटेरे शासकों ने खोखला और अशिक्षित कर दिया, अंग्रेजों की दो सौ साल की गुलामी का काल देश के इतिहास का सबसे काला अध्याय कहा जाएगा। बड़े त्याग के बाद सन् 1947 में देश ने परतंत्रता की बेडि़यां तोड़ीं और देश के चालीस करोड़ों ने रामराज्य के स्वप्न संजोए किन्तु हमारे नए शासक उसी राह पर चलने लगे जिस पर विदेशी लुटेरे शासक चले थे। पच्चीस तीस साल में ही रामराज्य के स्वप्न ध्वस्त हो गए, जनता के विभिन्न माध्यमों से ठगा जाने लगा, ‘चालबाज ठग जनता की गाढ़ी कमाई को अपनी जेब में डालने में लग गए। समाज में विभ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई, साहित्यकार भी अपना धर्म भूल कर सत्ता का स्वाद चखने में लग गए, यहां तक कुछ साहित्यकार तो सरकारी माउथ पीस बन गए। इस स्थिति ने कविता को मूलचरित्र से हटा दिया। ईमानदार साहित्य को आक्रोश ने घेर लिया, इस आक्रोश ने कविता के क्षेत्र में एक नई विधा को जन्म दिया। सोच समझ कर उसे तेवरी संज्ञा से विभूषित किया गया।
अपना शासन स्वयं ही चलाने हेतु हमने विश्व में सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली लोकतंत्र को अपनाया, जिसमें जनता के द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों को सत्ता सौंपी गई। प्रथम दो चुनाव सन् 1952 तथा 1957 में तो वे लोग ही चुने गए जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में गांधी, सुभाष, आजाद के साथ काम किया किन्तु बाद में शनैःशनैंः ऐसे त्यागी व्यक्ति हाशिए पर चले गए और बेशर्मी की राजनीति अपने पांव पसारने लगी, लाचार जनता सब कुछ मूक हो देखती रही। अवसरवादिता, छल, प्रपंच, तुष्टीकरण के नए-नए समीकरण बनते गए। सेवा और कर्म की संस्कृति नष्ट होती चली गई। लोकतंत्र से लोक लुप्त होता गया, जनता एवं नेता के बीच खाइयां बढ़ती चली गई।

धर्म का प्रयोग सत्ता के लिये किया जाने लगा, ढोंगी, आडंबरी तथाकथित धर्मावतारी धर्म की दुहाई देकर दंगों में अपनी रोटियां सेंकने लगे, समाज में समरसता लुप्त होने लगी। जाति, वर्ग, क्षेत्रीयता का विष हवाओं में घुलने लगा। आम आदमी ने न केवल मंहगाई का दंश झेला बल्कि पढ़ा लिखा समाज बेरोजगारी की मार से त्रस्त होता चला गया। गरीबी बढ़ती चली गई। दहेज नाम का दानव ललनाओं को अग्नि के हवाले करने लगा। आजादी की लड़ाई में असमी, बंगाली, तमिल, मलायकम, तेलुगु उडि़या हिन्दी आदि भाषा-भाषी जो एक मंच पर थे, भाषाओं की टकराहट के संवाहक बन गए, सन 1964-65 में ऐसा लगने लगा कि कहीं देश उत्तर दक्षिण की सीमाओं में न बंट जाए। राजनीति की बागडोर बाजीगरों के हाथ में जाने लगी। बाजीगर भी विभिन्न शैलियों में डुगडुगी बजाकर जनता का ध्यान अपनी और आकर्षिक करने में लग गए। देश में ही कई विदेशी धाराएं मनमोहक रूप में अपना प्रभाव दिखाने लगी। ऐसी स्थिति आखिर कब तक सही जाती। एक सीमा जब समाप्त हो गई तो कुछ रचनाकारों को सामान्य व्यक्ति की पीड़ा की अभिव्यक्ति हेतु सामने आना पड़ा। उन्होंने अपनी रचनाओं में आक्रोश तथा विद्रोह के तेवर दिखलाए और जनसामान्य में गये तथा सरल रूप में प्रचलित भाषा के साथ तेवरी ही समाज के सामने एक विधा के रूप में आई। सरसरी तौर पर दूर से देखने पर तेवरी की शक्ल ग़ज़ल के रूप में दिखाई देने पर तथाकथित ग़ज़लकारों [ विशेषकर हिन्दी ग़ज़लकारों ] ने पूरा जोर लगाकर इस विधा का विरोध किया, शायद अपनी प्रभुता का ताज मैला होने के भय से या किसी अन्य जमीदारी खत्म होने के अन्तर्भय से। साहित्यकारों के एक वर्ग ने इस विधा का स्वागत भी किया। कुछ खेमे के मठाधीशों को अगुआई में तेवरी पर विभिन्न माध्यमों से प्रहार भी किए गए। किन्तु जर्जर कश्ती’, ‘ तेवरी पक्ष’, ‘सम्यकआदि नामक पत्र-पत्रिकाएं ऐसे झंझावातों के सामने डटे रहे। जनवादी सोच के कुछ विद्वान साहित्यकारों ने आवाज उठाई कि जब हम लोग ही समाज की विसंगतियां दूर करने में लगे हैं तो आपका तेवरी आन्दोलन अलग कैसे, ऐसे ही स्वर कुछ तथाकथित प्रगतिशील कहलाने वाले खेमों से भी आये। किन्तु तेवरी आन्दोलन अपने ही बूते पर जनता की मूक वाणी को शब्द देते चला आ रहा है। अनेक विरोधों-अवरोंघों के बावजूद वह और आगे बढ़ेगा ऐसी हमें आशा है। ग़ज़ल विधा का हृदय एवं मस्तिस्क से सम्मान करते हुए ग़ज़लियत के कथ्य से अलग तेवरयुक्त लिखी गई तेवरियों के प्रति आशावान भी है।

संख्या-बल लोकतंत्र का मूल आधार +दर्शन बेजार

संख्या-बल लोकतंत्र का मूल आधार

+दर्शन बेजार
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लगभग सत्ताई-अट्ठाईस वर्ष पूर्व जनपद मुजफ्रफर नगर के कस्बा खतौलीमें आयोजित एक साहित्यिक विचार-गोष्ठी में श्री ऋषभदेव शर्मा देवराजतथा डॉ. देवराज ने जनसापेक्ष कविता जो कथित ग़ज़ल-शिल्प में लिखी जा रही थी, को तेवरीनाम देकर एक नई विधा को जन्म दिया। इस विधा पर जर्जर-कश्ती, सम्यक, प्रसंग आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रभावी ढंग से विचार प्रस्तुत किए गए। सार्थक सृजन की त्रौमासिक पत्रिाका तेवरीपक्षका तो नाम ही तेवरी-विधा के अनुरूप रखा गया। ग़ज़ल के समर्थकों ने हिन्दी ग़ज़ल के चलते अलग से तेवरीनाम रख दिए जाने का पुरजोर विरोध भी किया जो अब तक जारी है। यहां तक कि तेवरी शीर्षक से लिखने वाले तेवरीकारों के लिए कुछ खास मर्यादाविहीन विशेषणों का भी समय-समय पर प्रयोग किया जाता रहा। तेवरीकार प्रारम्भ से ही जनसापेक्ष रचनाकर्म में लिप्त रहे हैं और उपेक्षित से उपेक्षित व्यक्ति की पीड़ा की अभिव्यक्ति में तल्लीन रहे हैं। उन्हें कभी भी छापने-छपाने की, सुनने-सुनाने की लालसा नहीं रही। वे अपनी बात कहते रहे हैं। लोकप्रिय-अलोकप्रिय होने न होने का साहित्यिक समीकरण उन्हें कभी छू नहीं पाया।
भले ही हमारे समाज ने घन बल, भुजबल को कभी स्वीकार नहीं किया हो किन्तु संख्याबल तो लोकतंत्र का मूल आधार ही है। वर्तमान में मंच, सभाओं, गोष्ठियों में ग़ज़ल इतनी पैठ जमा चुकी है कि ग़ज़ल सुनने-सुनाने वालों की संख्या के आगे कोई भी ठहरता हुआ नहीं दिखाई पड़ता। ग़ज़ल के भी दो हिस्से कर दिए गए- उर्दू ग़ज़ल एवम् हिन्दी ग़ज़ल। इस पर चर्चे भी खूब हो रहे हैं। अन्य विधाएं हाशिए पर चली गई प्रतीत होती हैं । कवित्त, घनाक्षरी, रोला, दोहा के लोकप्रिय रचनाकार भी आज लोकप्रिय न रहने के लालायित होकर मंच पर अपनी रचना का प्रारम्भ किसी ग़ज़ल के शे’र से ही करते दिखाई दे जाएंगे। व्यावसायिकता में आज ग़ज़ल सर्वोच्च शिखर पर है। फिर भी कुछ दो-चार तेवरीकार तेवरीनाम की ध्वजा उठाते हुए यदा-कदा देखे-सुने जा सकते हैं। किसी भी विधा को स्थापित कराने के लिए साहित्य के मठाधीशों की कृपा-दृष्टि प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। किन्तु तेवरीकार किसी भी मठाधीश के मठ में मुहार लगाने के बजाय अपने लेखन में सर्वहारा उपेक्षित, शोषित, पीडि़त, मेहनतकश मजदूर मात्र से ही आशीर्वाद प्राप्त करने की ललक लिए हैं। चुटकियों में बड़े-बड़े आयोजन करा डालने वाली संस्थाओं, सेठों, साहूकारों की ड्योढ़ी तक जाने में तेवरीकार स्वयं को तुच्छ समझने लगते हैं। ऐसे में उनकी रचनाओं का प्रचार-प्रसार कोई क्यों करेगा। विभिन्न माध्यमों से अपनी बात पहुंचाने के लिए माध्यमों के पास जाना ही पड़ता है। माध्यम किसी के पास खुद क्यों जाएगा। प्यासा ही कुंए के पास जाता रहा है।
साहित्य को समाज का दर्पण माना गया है। समाज के रूप का छायांकन साहित्य में ही देख लिया जाता है। उत्तर भारत में विभिन्न मांगलिक अवसरों पर बन्ना-बन्नीगारी, सोहर, डोली आदि का गायन आज भी प्रचलित है। यदि ऐसे अवसरों पर इन गायनों में से मूल तत्व बधाईनिकालकर क्रान्ति, परिवर्तन के स्वर आधुनिकता [ जदीद ] के नाम पर पिरोए जाएंगे तो वे फिर बन्नी-बन्ना, सोहर कहां रह पाएंगे? संख्या-बल का सहारा लेकर यदि हम इन विधाओं में से प्राण तत्व बधाईको ही निकाल फैंक कर क्रान्ति, परिवर्तन की स्थापना करने की जिद करेगें तो समाज में अंततः एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाएगी और साहित्य स्वयं दिशाविहीन हो जाएगा और स्थापित विधाएं एक-एक करके दम तोड़ देंगी। ग़ज़ल का प्राणतत्व ही प्रेम है। यदि यह  तत्व ही ग़ज़ल से बाहर खींच लिया जाएगा तो फिर ग़ज़ल, ग़ज़ल नहीं रह पाएगी, इसी प्रकार बिहार झांरखण्ड, पूर्वाचल उ.प्र. में प्रचलित विदेसियासे विरह तत्व बाहर निकाल दिया जाएगा तो वह विदेसिया न होकर कुछ और ही हो जाएगा। फारस से आई सुकोमल ग़ज़ल विधा सत्रहवीं सदी के मध्य से भारत में स्थापित होना शुरू हुई। महान शायर वली ने ग़ज़ल को जन-जन तक पहुंचाया। बली, मीर, दर्द, मोमिन, गालिब, जौक से लेकर आरजू लखनवी, चकबस्त, शैदा, जिगर, फिराक, मजाज आदि तक ग़ज़ल के शबाब में दिनों दिन निखार होता आया। वस्तुतः ग़ज़ल ने ही भारत को नजाकत नफासत की एक नई संस्कृति से नवाजा।
विभिन्न विद्वान ग़ज़ल के शिल्प, कथ्य के बारे में समय-समय पर इसका मूल्यांकन करते रहे हैं। आज भी जिज्ञासुओं द्वारा साहित्य क्षेत्र में इस विधा पर लगातार शोध कार्य किए जा रहे हैं । मुस्तफा अहमद खां मद्दाह द्वारा रचित उर्दू-हिन्दी शब्दकोष, उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित शब्दकोश में ग़ज़ल का अर्थ ‘प्रेमिका से वार्तालाप’ ही है। फिराक गोरखपुरी के अनुसार-ग़ज़ल का मिज़ाज समर्पणवादी होता है। और यह दर्द भरी दिल की गहराई से निकलता आवाज़ है।डाॅ. नगेन्द्र के अनुसार-ग़ज़ल का स्थाई भाव प्रेम है, जिसमें रहस्यानुभूति, मस्ती, रिन्दी आदि संचारी भाव हैं। ख्वाजा अहमद फारुखी के अनुसार-जो कराह हिरन को तीर चुभने के बाद बेकसी में निकलती है, वह ग़ज़ल कहलाती है।

जब विद्वानों ने इतना कुछ पारिभाषित कर दिया है तो हम ग़ज़ल को ग़ज़ल क्यों नहीं रहने दे रहे हैं। उसके मूलतत्व प्रेम को ही हम बाहर निकाल फैंक रहे हैं तो यह किस अधिकार के तहत? यह अधिकार हमें किसने दिया है कि नजाकत-नफासत की महक लिए साहित्य की एक बहुमूल्य परम्परा ग़ज़ल से प्रेम-तत्व हटाकर, अन्य तत्व भरकर उसे ऐसा बना दें कि वह अपनी पहचान ही खो बैठे। श्री नीरज ने गीतिका’, श्री चन्द्रसेन विराट ने मुक्तिकानाम देकर जो परम्परा प्रारम्भ की, वह ऐसी ही परिस्थितियों का परिणाम रही होंगी, और वे अपनी रचनाओं को ग़ज़ल नाम देने से बचते रहे होंगे। तेवरी भी बदलते चरित्र अर्थात् कथ्य के आधार पर संज्ञापित है, इसे समझना चाहिए।

अनूठी काव्यकृति-एक प्रहारःलगातार +मधुसूदन शर्मा




अनूठी काव्यकृति-एक प्रहारःलगातार

+मधुसूदन शर्मा
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‘‘क्रान्ति से प्रयोजन है कि अन्याय पर आधारित वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन आना चाहिए... यदि सभ्यता के ढांचे को समय रहते न बचाया गया तो वह नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगी।’’
 बम-कांड के अभियुक्त भगत सिंह के मि. पूल की अदालत में दिये गए उपरोक्त बयान का भाव ही सम्भवतः दर्शन बेजार के तेवरी संग्रह एक प्रहारः लगातारका उपजीव्य एवं अभिप्रेत है! देश की दम तोड़ती संस्कृति जीवन मूल्यों के साथ तथाकथित जनसेवकों, सन्तों, को प्रहारात्मक मुद्रा प्रदान करना समय की महती आवश्यकता है। तेवरीऐसी ही कार्यवाही है, जो सामाजिक संत्रास की तिल-तिल भोगी गई पीर का विद्रोही किन्तु स्वस्थ आक्रोश है।
प्रस्तुत संग्रह में अड़तालीस तेवरियां है। इनमें सामाजिक बदलाव की आग है, आर्थिक-सामाजिक शोषण में डूबी अवसरवादी राजनीति को बेपर्दा करने के प्रयास हैं | कहीं धर्म और सम्प्रदाय को अपने स्वार्थ के लिये भुनाने वालों का मुखौटा उतारने की कोशिश की गई है तो कहीं कलम को कुर्सी की चाटुकारिता करने पर धता बताई गई है। कुल मिलाकर यह समाज के लुटेरों, आतंकवादियों, मौकापरस्तों, विघटनकारियों के खिलाफ एक भावमय और सृजनशील श्वेतपत्र बन गया है। बेलिन्सकी ने एक जगह कहा है कि आज के सौन्दर्य का आदि और अन्त मनुष्य है | बेजार ने इसी मनुष्य को असहाय, निराश, विवश और त्रासद कुरुपताओं के घटाटोप से उबारकर तमसो मां ज्योतिर्गमयस्थिति में पहुंचाने का अदना-सा प्रयास किया है, इसीलिये अपने इस अदने प्रयास को उन्होंने क्रान्तिधर्मी भगत सिंह को सोंप दिया है।
देश की खोई शान पर आंखें नम कर कवि अपनी बात की शुरुआत करता है। उसे दुख है कि भूख, शोषण, आतंक, उत्पीड़न और अराजकता से त्रस्त जिन्दगी को अब बहशियों की सभ्यता ढोनी पड़ रही है। जिन्दगी अभी तक विश्वासों की मृग-तृष्णा के रेत में पड़ी मछली की तरह छटपटाती रही है- कंठ में बदलाव की आशा-अपेक्षाओं की प्यास को जबरन छिपाएवह अब डंके की चोट कह देता है कि समझौतापरस्त जिन्दगी किसी बेजार की ही थीः
सिर्फ समझौता नहीं है जिन्दगी
एक जलती आग भी है सत्य में।
सम-सामयिक जीवन पर राजनैतिक और अर्थ की जकड़न बढ़ती ही जा रही है। प्रत्येक घटना या स्थिति के पीछे स्पष्टतः ये ही हाथ होते हैं। राजनीतिज्ञों के गिरगिटिया स्वरूप और मत्स्य न्याय व्यवस्था पर कवि खीझ उठता है | वह जानता है कि कानून सिर्फ उन्हीं के लिए है जिनके घर दो जून की रोटियां भी नहीं। आज कुर्सी चोरों के लिए है। देवता सींकचों में बन्द हैं। सत्य, न्याय, ईमान निर्वासित हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों की भीड़ भी उन्हीं की वकालत कर रही हे जो झूठी सियासत कर रहे हैं, जो लूट के धन से जियारत कर रहे हैं-दोस्ती में अदावत कर रहे हैं। कवि जानता है कि आम आदमी को अपने देवताओं के दर्शन कभी नहीं होते, मीरा को कन्हैया कहाँ मिला है- गोपियों के पास कृष्ण कब गए हैं? फिर भी यह भीड़तंत्र मीरा-गोपियों के रूप में देर-सवेर झलक पाने को प्रतीक्षारत है। आदमी आज खौफ और आतंक में आकंठ डूबा हुआ है, यहां न्याय की बात करना जुर्म है-
रोशनी की बात की जिस आंख ने
आपने उस आंख में तकुबे किये।
या
जो मदारी भीड़ ले जितनी जुटा
लूट लेता उतना वो जनतन्त्र है |
पूंजीवादी शक्तियों का जाल शहरी-कस्बाई और ग्रामीण तीनों जीवनों पर छाया हुआ है। गांव का सुखी-निश्छल जीवन भी अब इनके विषवमन से विषाक्त हो गया है। राजनीति और अफसरशाही के दलालों ने भले लोगों का जीना दूभर कर दिया है। यौनशोषण, लूट-खसोट, आतंक वहां आम बन गए हैं-
लूट की भाषा कपट का व्याकरण
अब बने कौमी-तराने गांव के।
या
जिस हवेली को रियाया टेकती
वह हवेली जिस्म के व्यापार का अड्डा रही।।
साम्प्रदायिकता और धार्मिक उन्माद के उत्पादक अलगावादी धर्म-नेताओं, संतों को भी बेजार की लेखनी ने बख्शा नहीं है। चाहे पंजाब का हो या अलीगढ़-गुजरात-भिवंडी के दंगे-कवि ने सभी के पीछे छिपे तथाकथित संतों, सूफियों, शान्ति-पुजारियों के मंसूबों की कलई खोल दी है। अपवाहों का जहर आपस में विरक्ति पैदा कर रहा है। मजहब हमें करफ्रयू की सभ्यता सिखा रहा है-
धर्म के उपदेशकों ने आजकल
शान्ति का प्रस्ताव ठुकराया हुआ है।
या
जान का दश्मन बना क्यों भिंडरा
सन्त पर हैवानियत आसीन क्यूं?
कविता जो अब तक भावनाओं और मांसलता की रूपपरी बनी बैठी थी वो अब अपने बदलते तेवरों के साथ दिखाई देती है। कविता अय्याशी  नहीं कटु यथार्थ है और अय्याश किसी की मजदूरी या मुसीबत को कब समझते हैं?
नर्तकी के पांव घायल हो रहे
देखता अय्याश कब यह नृत्य में।
या
जो विदूषक मंच हंसता रहे
सिसकियां भरता वही नेपथ्य में।
आज भूख की फसल घर-घर उगी हुई है। पेट की चाहत क्या पहले भी ऐसी थी कि वह पराए हाथ की रोटियां भी छीन ले? पेट ही जिस्मफरोशी को मजदूर कर रहा है। यहां तक कि-
हो गये हर रात को अक्सर
भूख में सहवास के टकड़े।
साहित्यकार समाज का जागरूक प्रहारी होता है। किन्त यदि प्रहरी ही सिक्काई-संस्कृति के हाथों बिक गया हो तो वह आजाद, बोस, मंगल पाण्डे की तुलना गद्दारों और कफनचोरों से करेगा ही। जब साहित्य मात्र दरबारी होकर रह जाएगा तो कबीर और मीरा, चन्द सिक्कों के लिये ट्रेन बस या मंच-विश्वविद्यालयों में भुनाए जाएंगे ही। निराला बेचारा विक्षिप्त ही रहेगा। नई-नई प्रतिभाओं को खस्सी करने, बौना और बर्बाद करने का षडयंत्र चलता ही रहेगा। ऐसी स्थिति में साहित्य को अंगारों से लिखने के सिवाय चारा ही क्या है? ऐसे अंगारी साहित्य से क्या भोपाल या नवम्बर में दिल्ली के दंगों को भुलाया जा सकेगा?-
हादिसा भोपाल जैसा ही यहां पर हो गया
एक जहरीली हवा की हर तरफ चर्चा रही।
कत्ल के दौरान जब मासूम तक बख्शे नहीं
तब यहां रोई सबकर रूह हिन्दुस्तान की।
एक प्रहार लगातारको प्रहारक तेवरीकार यह मानकार चलता है कि अत्याचार शोषणविहीन समाज की स्थापना ही उसका मकसद है। और वह उसे तार्किक व शाश्वत ही ठहराता हैं उसकी विवशता-आक्रोश नहीं चेतावनी बनते हैं तो कहीं ओज, उत्साह भरी ऐलानी मनादी-
आप इस बेजारसे मिल लें जरा
आग से कछ रूबरू हो जाएंगे।।
इन अलावों में लकडि़यां डालिये
आग थोड़ी और जलने दीजिए।।
अथवा
लिख रहा हूं दर्द की स्याही से जिनको
क्रान्ति की बू आएगी कल उन खतों से।।
बस इसी कल के इनतजार में वह जी रहा है। वह दिनकर की इस मान्यता से सहमत है कि, ‘‘दानवी रक्त से सभी पाप घुलते हैं’’ तभी तो उसका कहना है-
इस जमीं का जालिमों के खून से
अब नया श्रृंगार होने दीजिये।
इसके साथ ही आलोच्य संग्रह में बेजार ने सुकरात, बिस्मिल, मंजूर, मरियम, द्रोपदी, पांडव, मीरा-श्याम, राम-रावन, निराला-कबीर आदि पौराणिक, वैष्णव प्रतीकों को नवीन अर्थ  देकर, मानवीय संवेदना से जोड़कर अपनी प्रगतिशील दृष्टि का परिचय दिया है। कृष्ण से तो उसे कुछ ज्यादा ही लगाव दिखाई देता है।
शिल्प और शर्तों की दृष्टि से ग़ज़ल का प्रतिरूप प्रतीत होती इन तेवरियों को तेवरीकारों के कथ्य की दृष्टि से एक स्वतन्त्र विधा माना है। बकौल रमेशराज ग़ज़ल अपनी कोमल सौन्दर्यमयी मानसिकता से बाहर निकलने का साहस बहुत कम कर पाई है, और जहां उसने ऐसा किया भी वहां अपना विचित्र रूप बना लिया है। तेवरीकार यह मानकार चलते हैं कि-
आदमी को अर्थ दे जीने के जो
लाइये तासीर ऐसी कथ्य में।
प्रस्तुत संग्रह को शृंगार-प्रेमिका से दूर रखना एक उपलब्धि कही जा सकती है। लेकिन देखना यह है कि श्रृंगार-प्रेम की भावना क्या इंसानियत के पैरों की हमेशा ही बेडि़यां बनती है-प्रेरणा प्रदातक कभी नहीं? इस अस्पृश्यता के पीछे कोई ग्रन्थि तो नहीं? दलीय पूर्वाग्रह में सहितस्यभाव होने पर भी मैनीपैस्टी जैसी बू आने की आशंका रहती है। आशा है तेवरीकार यहां सतर्क रहेंगे! विषय या [ कथ्य ] की पुनरावृत्ति भी तेवरीकारों की कमजोरी बन सकती है। लीक से हटने का कोई भी नौजवानीप्रयास तथाकथित साहित्यदांओं को रास नहीं आता। तेवरी-आन्दोलन को इस बुर्जुआ-मानसिकता की धुरपटों से सतर्क रहना पड़ेगा।
कुल मिलाकर एक प्रहारः लगातारउत्तम प्रेरणा प्रदायक संग्रह बन गया है। इस सामाजिक-राष्ट्रीय संत्रास के समय बेजार की बेजारी एक जागरूक बुद्धिजीवी-साहित्यजीवी की पीड़ा है और प्रस्तुत संग्रह उस पीड़ा-प्रसूति का परिणाम। परिस्थितियां कितनी भी विपरीत और त्रासद क्यों न हों मनष्य की जिजीविषा के समक्ष अतंतः बौनी हो जाती है। क्योंकि हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनसार,‘‘मनुष्य परिस्थितियों से बड़ा है-बशर्तैं वह मनुष्यहो, किसी तरह जीवित रहकर मरने की तैयारी करते रहने वाला भुनगा नहीं-मनुष्य।’’ दर्शन बेजार का यह प्रथम संग्रह मनुष्य की इसी अदम्य शक्ति को जुझारू रूप देने का ईमानदार प्रयास है। आशा है बेजार जी दुष्यन्त कमार की तरह यह सिद्ध करने का हमेशा साहस रखेंगे कि-
‘‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।’’