Wednesday, July 13, 2016

ग़़ज़लियत के बिना ग़ज़ल कैसी? +दर्शन बेज़ार

ग़़ज़लियत के बिना ग़ज़ल कैसी?

+दर्शन बेज़ार
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ग़ज़ल अपनी सुकोमलता को हृदय की गहराइयों तक पहुंचाने की असीम क्षमता के बल पर उर्दू मुशायरों में ही नहीं, हिन्दी कवि-सम्मेलनों में भी सभी विधाओं को पीछे छोड़ती हुई लोकप्रियता के शिखर तक जा पहुंची है। प्रत्येक हिन्दुस्तानी को आसानी से समझ आ सकने वाला उसका व्याकरण भी इस दिशा में अपनी भूमिका निभाता रहा है। जटिल शब्दों को दरकिनार रखते हुए कवियों-शायरों ने अमीर खुसरो और कब़ीर की बोली-भाषा का प्रयोग करके आज इस विधा को जन-जन तक पहुंचा दिया है। यदि हम हिन्दी कवि सम्मेलनों के इतिहास पर गौर करें तो सहज ही स्वीकार करेंगे कि लगभग 40-50 वर्ष पूर्व गीतकार ही अधिक संख्या में मंच की शोभा बढ़ाते थे, आज वही स्थान ग़ज़लकारों को मिल गया है। गीतकार के रूप में प्रसिद्ध पाए और एक लम्बा मंचीय-युग जीने वाले वरिष्ठ  साहित्यकार भी ग़ज़ल लिखने लगे हैं। स्वीकार ही करना पड़ेगा कि बाहर से आई विधा ग़ज़लसभी विधाओं को पीछे छोड़ती हुई बहुत आगे निकल चुकी है। पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं को ग़ज़ल नाम से प्रकाशित करवाना आवश्यक-सा हो गया है। ग़ज़ल विधा कहां से चलकर कहां तक आ पहुंची है, लगभग 30-35 वर्षों से लगातार शोध हो रहे हैं। विद्वान शोधार्थी एवं शोधाचार्य इस विषय पर बहुमूल्य सामग्री भी प्रस्तुत कर रहे हैं। ग़ज़ल के कथ्य एवम् शिल्प को 19 निर्धारित बह्रों में प्रेम की असीम अभिव्यक्ति के साथ विद्वानों ने इसे निम्नानुसार परिभाषित किया है-
ख्वाजा अहमद फारुखी के अनुसार-‘‘जो कराह [गि़जाल] हिरन को तीर चुभने के बाद बेकसी में निकलती है वह ग़ज़ल है।’’
फिराक गोरखपुरी के अनुसार-‘‘ग़ज़ल का मिज़ाज समर्पणवादी होता है। यह दर्दभरी और दिल से निकलने वाली आवाज है।’’
डॉ. नगेन्द्र के अनुसार-‘‘ग़ज़ल उर्दू का सर्वाधिक प्रसिद्ध और सरस भेद है, जिसमें रहस्यानुभूति, मस्ती, रिन्दी, धार्मिक विद्रोह आदि स्थाईभाव हैं।’’
प्रायः मंचों पर कही जाने वाली और हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली कथित ग़ज़लें उक्त पैमाने पर अपनी मूल परिभाषा से बहुत हटकर हैं। न तो उनका स्थाई भाव प्रेमहै और नहीं निर्धारित बह्रों की सीमा  का अनुशासन। जैसा मन में आया रचना लिख दी और ग़ज़ल नाम दे दिया। माना कि आज आम आदमी प्रणय के लिए नहीं, रोटी के लिए अधिक छटपटा रहा है, साहित्यकार भी उसे रोटी की चाहत को शब्दबद्ध कर रहा है, किन्तु उस रचना में ग़ज़ल का आवश्यक प्राणतत्व प्रेमही नहीं है तो वह ग़ज़ल कैसे हुई? उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा प्रकाशित उर्दू-हिन्दी शब्दकोष’, ‘नालन्दा अद्यतन कोषमें सुविज्ञापित प्रेम-मोहब्बत की बातचीतकी परिभाषा, फिराक गोरखपुरी, ख्वाजा अहमद फारूखी और डा. नगेन्द्र द्वारा उद्धृत शब्दावली को किसी उर्दू-एकेडमी, विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग या नामचीन उर्दू के शायर ने खारिज नहीं किया है। ग़ज़ल के  शिल्प में लिखी गई प्रेम-मोहब्बतविहीन हर रचना को उन संस्थानों, विद्वानों ने ग़ज़लनाम से मण्डित कर दिया हो, सार्वजनिक रूप से ऐसा भी अभी तक नहीं हुआ है। ग़ज़ल की मूल परिभाषा और अवधारणा वही है जो 800-900 साल पहले निर्धारित कर दी गई थी। ग़ज़ल की परिभाषा उर्दू साहित्याचार्यों द्वारा प्रतिपादित की गई है। हिन्दी के आचार्यों ने भी उसी प्रकार हिन्दी साहित्य में प्रयुक्त किए जाने वाले विभिन्न छन्दों का विधान निर्धारित किया है। हिन्दी छन्दशास्त्र के अनुसार दोहा तभी दोहा कहलाएगा जबकि ग्यारहवीं और चैबीसवीं मात्रा लघु होगी तथा तेरहवीं मात्रा पर अल्प ठहराव होगा। चौपाई में सोलह मात्राएं किन्तु अन्त में जगण अथवा तगण नहीं आए। इसी प्रकार छन्द विधान अनुसार रोला में चौबीस, गीतिका में छब्बीस, हरिगीतिका में अठाईस तथा अन्त में लघु-गुरु हो। शिल्प के अनुरूप मात्राओं के उपरोक्त अनुशासन परम आवश्यक हैं। कथ्य के दृष्टिकोण से मर्सिया, कसीदे की तरह ग़ज़ल के भी अपने अलग-अलग प्राणतत्व हैं। हिन्दी साहित्य में भी बिरहा, चैती, कज़री, बन्ना-बन्नी, सोहर आदि के अलग-अलग  प्राणतत्व हैं। किसी एक विधा की लोकप्रियता को देखकर दूसरी विधा में घुसपैंठ करना साहित्यिक परम्पराओं की हत्या करना ही होगा। सामाजिक परिवर्तन, विद्रोह, विसंगति-विरोध, कुरीति-मर्दन जैसे कथ्यों पर झकझोरने वाली रचनाओं को भी ग़ज़ल मानना अतार्किक है | बन्नी-बन्ना या कज़री आदि को भी ग़ज़ल इसलिए न मान लिया जाना चाहिए कि ग़ज़ल की लोकप्रियता शिखर पर है।
पदमभूषण नीरजजी, कविवर चन्द्रसेन विराट ने प्रेमतत्व से हटकर और ग़ज़ल की निर्धारित बह्रों से आगे निकलकर सामाजिक सरोकारों के  परिपेक्ष्य में लिखी गई ग़ज़ल जैसी दिखाई पड़ने वाले रचनाओं को गीतिकाऔर मुक्तिकानाम दिया और उन रचनाओं को ग़ज़ल नाम देने से बचते रहे हैं। भले ही तथाकथित ग़ज़ल प्रकाशक उन्हें ग़ज़ल शीर्षक से ही क्यों न छापतें रहे हैं।  

माना कि तेवरी से भले ही तथाकथित हिन्दी ग़ज़लकारों को एलर्जी हो, गीतिका या मुक्तिका से क्यों एलर्जी होती है? हमारे विद्वान हिन्दी ग़ज़ल समर्थक मित्रों ने अपनी-अपनी वाणी के स्तर के अनुरूप हम तेवरीकार साथियों पर अनेक विशेषणों के प्रयोग किए हैं। शब्दों के अभाव में वे कुछ कुछ स्तरविहीन विशेषण प्रयोग करते रहे हैं। शायद हमारे उन मित्रों को लोकप्रियता में बने रहने के उद्देश्य से ही ग़ज़लनाम को बार-बार दोहराते रहना पड़ता है जो उनकी सामयिक मजबूरी भी हो सकती है। विद्वान साथियों-पाठकों के समक्ष हम अपना दृष्टिकोण रख रहे हैं, आशा है वे हमें अपनी सहमति असहमति से अवश्य अवगत कराएगें।

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