Monday, July 11, 2016

अन्तर्मन का दर्पण : "तोड़ पत्थरों को भागीरथ" +आचार्य राकेश बाबू ‘‘ताबिश’’




अन्तर्मन का दर्पण : "तोड़ पत्थरों को भागीरथ"

+आचार्य राकेश बाबू ‘‘ताबिश’’
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    शब्द बह्मोपासक सुकवि श्री दर्शन बेज़ारकी काव्य कृति-तोड़ पत्थरों को भागीरथ’, आवरण के अतिरिक्त 88 पृष्ठीय, डिमाई आकार,              साधारण कलेवर की कृति है। आवरण के अवसर के भाग में सर्वप्रथम प्रार्थनाशीर्षक में भारत की प्राचीन उत्कृष्टतम् संस्कृति का उल्लेख करते हुए देश में रामराज्य के पुनः स्थापनार्थ प्रार्थना की गयी है। प्राथमिक से लेकर इंजीनियरिंग तक की शिक्षा में रहे आद्योपान्त शिक्षकों को कृति का समर्पण और अगले पृष्ठ पर अपने परमपूज्य माता-पिता का चित्र और चित्र के नीचे काव्याभिव्यक्ति में उनके आशीर्वाद के साथ उनकी गोद में पुनर्जन्म की अभीष्ठ आकांक्षा करना यह सिद्ध करता है कि कवि भारतीय संस्कृति, शिष्टाचार और श्रद्धा में उत्कृष्ठ आदर्श का अनुसरण करता है। प्रणाममें स्वाधीनता के उषाकाल में कवि का जन्म लेना, अन्तस मन पर स्वतन्त्रता नायकों का छत्रप पहनना एवं अपने प्रारम्भिक काल से ही काव्यांकुरण होना, अपने विशिष्ट प्रेरणा-स्त्रोत हिन्दी संस्कृति के प्राकट्य किया है वो वन्दनीय है। इसके अतिरिक्त अन्य उत्साहवर्धक एवं सहपाठियों का स्मरण करना उल्लेखनीय है।
    पुस्तक में सम्मिलित रचनाओं को चार सोपानों में विभक्त किया गया है-कविताएं, मुक्तक, बाल कविताएं एवं ग़ज़लें। कविता सोपान में 29 रचनाएं हैं, जो देश और समाज का न मात्र दर्द स्पष्ट करती है अपितु कवि हृदय में विराजमान राष्ट्रभक्ति को प्रकट करती हैं। काव्य के चारों सोपानों में काव्य के शैशवकाल की भी रचनाएं हैं परन्तु रचनाओं के शैशव में भी यौवन की झलक परिलक्षित होती है। काव्य में भाव अभिव्यन्जना है। ग्राम्य जीवन हो या राष्ट्र चिन्तन, राष्ट्र और समाज की बढ़ती समस्याएं, निर्माण पथ पर आगे बढ़ने का संकल्प, भ्रष्टाचार का बढ़ता चलन, कवि की लेखनी ने सबको स्पर्श किया है। अगले सोपान में मुक्तक प्रस्तुत किए गये हैं , जिनकी संख्या 22 है। मुक्तकों में मानवीय संवेदनाओं को उकेरा गया है जो मनुष्य के अन्तस् मन में उत्साहवर्धन कर अग्रसर होने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। तीसरे सोपान में बाल कविताओं को सम्मिलित किया गया है जिसमें मात्र 6 कविताएं हैं, जहां बाल मन को आह्लादित करने के साथ संस्कारित करने वाले साहित्य का सृजन बहुत कम हो रहा है, वहीं श्री बेज़ारने बाल साहित्य पर भी बड़ी कुशलता से अपनी लेखनी को चलाया है। रचनाओं की संख्या कम अवश्य है, परन्तु प्रभावी एवं तथ्यपरक है। बाल सुलभ सुकोमल मन की कोमल भावनाओं का दृश्य इन कविताओं में परिलक्षित या दृष्टिगोचर होता है। अगला सोपान ग़ज़लों का है जिसमें 28 ग़ज़लें सम्मिलित की गयी हैं। ग़ज़लें दिल का दर्द तो उभारती ही हैं, मानव जीवन की विकृतियों एवं देश और समाज का भी चित्र खींचती हैं।
    उद्धरणों की प्रति छाया में पुस्तकीय वैशिष्ट्य को विचारों की कसौटी पर कस कर देखते हैं। कवि ईश्वर की सर्वव्यापकता को स्वीकार करता है एवं उसी के प्रकाश में आपसी साम्प्रदायिक सौहाद्र स्थापित करने का प्रयास करता है। पंक्तियां दृष्टव्य हैं-
         कण-कण में भगवान यहां है, राम यहाँ रहमान यहाँ है।
         यह धरती पावन मन भावन, गीता-ग्रन्थ कुरान यहाँ है।।
    देश स्वाधीन हुआ किन्तु साथ ही विभाजन का वज्राघात भी झेलना पड़ा। कवि के हृदय में राष्ट्र विखण्डन की वेदना शब्द शोणित बनकर लेखनी स्वरूप चक्षुओं से प्रस्फुटित होने लगती है जो निम्न पंक्तियों में दृष्टव्य है-
         धरती वो थी एक हमारी, उसमें से दो देश बने।
         अपने ये लाहौर करांची, आज वही परदेश बने।।
    देश के विभाजन के उपरान्त देश में सिर उठाता अलगाववाद, पुनर्विभाजन और पराधीनता को निमन्त्रण देती कुछ देशद्रोही शक्तियों की प्रदूषित मानसिकता कवि को स्वीकार नहीं है, इसीलिए वह शब्द-संकल्प करता है-
         तिनके-तिनके बना नीड़ जो, उसे न अब जलने देंगे।
         स्वतन्त्रता के सूरज को अब, कभी नहीं ढलने देंगे।
    इसी व्यथा से उद्वेलित कवि आत्मबलिदान के लिए प्रेरित करते हुए निम्न पंक्तियां कहता है-
         भर दो रणचण्डी का खप्पर, भर दो बलिवेदी की झोली।
         चलो झेलने भारतवासी, हंस-हंस कर सीने पर गोली।।
    कवि का आदर्श भावोद्रेग मिथ्या आदर्शों, बनावटीपन और आडम्बर को धिक्कारते हुए कहता है-
         बहुत हो चुका है बस कोरे आदर्शों का ढोल बजाना।
         समय नहीं है सिर्फ पुरानी घिसी-पिटी बातें दोहराना।।
    देश और समाज की स्थिति अति दयनीय है यहां वास्तविकता का ज्ञान हो पाना बहुत ही दुष्कर है, पग-पग पर धोखा है। कुछ भी विश्वास के योग्य शेष नहीं है, यहां रक्षक भी भक्षक हो सकता है, सम्पूर्ण देश में छल-प्रपन्च का जाल बिछा हुआ है। इसी भावना को प्रकट करती पंक्तियां हैं-
जाल फैलाकर शिकारी छुप गये हैं घात में
जागते रहना सिपाही तुम अंधेरी रात में।
    मातृभूमि भारत सम्पूर्ण पृथ्वी पर प्रकृति सुषमा का अनुपम वरदान है, गांव उसी की श्रेष्ठतम इकाई है। प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण ग्राम्य जीवन के परिवेश का एक सुन्दर चित्रण दृष्टव्य है-
         सौंधी सौंधी गन्ध यहाँ है
         बहती मन्द समीर यहाँ है।
         सुरभित वसुधा और कहाँ है?
         चहके नित मृदु स्वर में खंजन
         कितना सरल गाँव का जीवन।
    समाज में मान्यताओं का क्षरण हो रहा है, आपसी पे्रम और सद्भाव मिट गया है। उसका स्थान कपटपूर्ण प्रेम ने ले लिया है। बाहरी दिखावे का चलन हो गया है। जिस पर विश्वास करो वही अविश्वसनीय निकलता है और समस्या बन जाता है-
         लगते होली दीवाली तक, मातम के त्यौहार सखी री।
         कौन दवाई देगा जब हो, खुद हकीम बीमार सखी री।।
    भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता पूर्णतः विलुप्त है, आधुनिकता की होड़ लगी है। पश्चिमी सभ्यता ने भारतीय सभ्यता को पूर्ण रूप से अच्छादित कर लिया है, जिससे भारतीय संस्कृति पूर्ण रूप से घायल एवं आहत है-
         पश्चिम की आंधी से घायल
पूरब के आचार सखी री।
    कवि अपनी बात बेवाकी से कहने में सिद्धहस्त है, उसका विचार है कि जिस व्यक्ति के हृदय में मातृभूमि के प्रति एक भीषण ज्वार नहीं है, वह कोई मृतशरीर ही हो सकता है, जीवित नहीं-
         बेरुखी हम किसी की न सह पायेंगे,
         साफ कहने से हम तो न रह पायेंगे।
         जिसमें जज्बा न हो मुल्क के वास्ते,
         उसको जिन्दा कभी हम न कह पायेंगे।
    जो लोग जीवन के संकट रूपी झंझावेगों से निकलते हुए जीवन यात्रा को लक्ष्य तक पहुँचाने में सफलता प्राप्त करते हैं, उन्हें कभी मृत्यु भयभीत नहीं कर सकती, यह पूरी तरह स्पष्ट होता है-
         मर-मर के जिये हैं हम हर लम्हा जि़न्दगी में
         क्या खौफ हमें होगा जिस रोज़ कयामत हो।
    उद्धरणों पर अधिक न जाते हुए काव्य के अन्य वैशिष्ट्यों पर ध्यानाकर्षण आवश्यक है। काव्य की भाषा पर विचार करें तो भाषा सरल सरस व प्रभावपूर्ण है। आम बोलचाल की भाषा है। भाषा में किसी प्रकार की पाण्डित्य प्रदर्शन नहीं किया गया, जो साहित्यकार की सकारात्मक सोच का परिणाम है। भाषा में ग्रामत्व जैसी दुर्बलता भी नहीं है। सरल हिन्दी की सुन्दर शब्दावली के साथ साथ रहमान, दीन, मजहब जैसे सैकड़ों अरबी-फारसी के शब्द एवं सिफ्ट, वेलेण्टाइन, माॅल, हीटर, स्टैण्डर्ड जैसे आंग्ल भाषा के शब्द बड़ी सुन्दरता एवं कुशलता के साथ प्रयोग किए गये हैं, जिनसे हिन्दी भाषा को समृद्धता प्राप्त हुई है। इसी के साथ कवि ने काव्य सौन्दर्य की वृद्धि के लिए यत्र-तत्र अलंकारों का उपयोग किया है। अनुप्रास के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
         शस्य श्यामला सुरभित वसुधा हर आंगन नन्दन का है।
         कंचन कोठी कार कामिनी, नित्य बढ़ाते रार-सखी री।
                 या      
सत्ता सम्पत्ति स्वार्थ सिद्ध सिद्धान्त सदैव सुहाये।
    इस प्रकार हम देखते हैं कि सुकवि श्री दर्शन बेजारकी यह कृति कवि के अन्तर्मन का दर्पण है जो अद्वितीय वैशिष्ट्यों से सम्पन्न साहित्य जगत के लिए अमूल्य धरोहर है।
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+द्वारिकापुरी, कोटला रोड, मण्डी समिति के सामने, फिरोजाबाद. उ.प्र.

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