Wednesday, July 13, 2016

तेवरी काव्यान्दोलन समय की आवश्यकता +दर्शन बेज़ार

तेवरी काव्यान्दोलन समय की आवश्यकता

+दर्शन बेज़ार
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शोषित की पीड़ा को व्यक्त करती हुई, दबंगों के अत्याचार के खिलाफ खुलकर सामने आने वाली कविता को नवें दशक के प्रारंभ में आज से लगभग तीस वर्ष पूर्व जन-जन तक पहुंचाने वाली विधा को एक नया नाम दिया गया तेवरी। तेवरी की प्रथम वर्षगांठ पर तेवरी आन्दोलन का घोषणापत्र दि. ग्यारह जनवरी 1982 को प्रसारित किया गया। इस घोषणा पत्र में तेवरी के कथ्य, शिल्प, रचनाधर्मिता, छन्द विन्यास आदि पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया और बतलाया गया कि तेवरी कोई वाद न होकर काव्य की एक स्वतंत्र विधा है। इससे नए नाम पर साहित्य क्षेत्र में एक बहस छिड़ गई, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में यह बहस चर्चा का विषय भी बनी।
कई एक साहित्यकारों ने तेवरी आन्दोलन और तेवरी नाम त्याग देने के लिए कई एक तर्क दिए गए, और उन्होंने स्वयं को जनसापेक्ष कविताओं का अगुआ रचनाकार बतला कर तेवरीकारों से गुस्से में अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं।
औरंगजेब के कार्यकाल तक भारतवर्ष संसार का सबसे सम्पन्न एवं सुसंस्कृत देश रहा। सर सुन्दरलाल ने भारत के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि अकबर के कार्यकाल हमें जहां आगरा, लाहौर, पाटलिपुत्र, कन्नौज, बिठूर के नगरों में रातदिन जगमगाहट रहती थी | उस समय लन्दन सहित यूरोप के कई नगरों में लकड़ी तथा मिट्टी के मकान थे। तुल्झामैन वाकर नामक विदेशी महिला उपन्यासकार ने अपने नए उपन्यास में भी इसी कथन को दुहराया है। वही देश भारत अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में यूरोपियन व्यापारी विदेशी लुटेरे शासकों ने खोखला और अशिक्षित कर दिया, अंग्रेजों की दो सौ साल की गुलामी का काल देश के इतिहास का सबसे काला अध्याय कहा जाएगा। बड़े त्याग के बाद सन् 1947 में देश ने परतंत्रता की बेडि़यां तोड़ीं और देश के चालीस करोड़ों ने रामराज्य के स्वप्न संजोए किन्तु हमारे नए शासक उसी राह पर चलने लगे जिस पर विदेशी लुटेरे शासक चले थे। पच्चीस तीस साल में ही रामराज्य के स्वप्न ध्वस्त हो गए, जनता के विभिन्न माध्यमों से ठगा जाने लगा, ‘चालबाज ठग जनता की गाढ़ी कमाई को अपनी जेब में डालने में लग गए। समाज में विभ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई, साहित्यकार भी अपना धर्म भूल कर सत्ता का स्वाद चखने में लग गए, यहां तक कुछ साहित्यकार तो सरकारी माउथ पीस बन गए। इस स्थिति ने कविता को मूलचरित्र से हटा दिया। ईमानदार साहित्य को आक्रोश ने घेर लिया, इस आक्रोश ने कविता के क्षेत्र में एक नई विधा को जन्म दिया। सोच समझ कर उसे तेवरी संज्ञा से विभूषित किया गया।
अपना शासन स्वयं ही चलाने हेतु हमने विश्व में सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली लोकतंत्र को अपनाया, जिसमें जनता के द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों को सत्ता सौंपी गई। प्रथम दो चुनाव सन् 1952 तथा 1957 में तो वे लोग ही चुने गए जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में गांधी, सुभाष, आजाद के साथ काम किया किन्तु बाद में शनैःशनैंः ऐसे त्यागी व्यक्ति हाशिए पर चले गए और बेशर्मी की राजनीति अपने पांव पसारने लगी, लाचार जनता सब कुछ मूक हो देखती रही। अवसरवादिता, छल, प्रपंच, तुष्टीकरण के नए-नए समीकरण बनते गए। सेवा और कर्म की संस्कृति नष्ट होती चली गई। लोकतंत्र से लोक लुप्त होता गया, जनता एवं नेता के बीच खाइयां बढ़ती चली गई।

धर्म का प्रयोग सत्ता के लिये किया जाने लगा, ढोंगी, आडंबरी तथाकथित धर्मावतारी धर्म की दुहाई देकर दंगों में अपनी रोटियां सेंकने लगे, समाज में समरसता लुप्त होने लगी। जाति, वर्ग, क्षेत्रीयता का विष हवाओं में घुलने लगा। आम आदमी ने न केवल मंहगाई का दंश झेला बल्कि पढ़ा लिखा समाज बेरोजगारी की मार से त्रस्त होता चला गया। गरीबी बढ़ती चली गई। दहेज नाम का दानव ललनाओं को अग्नि के हवाले करने लगा। आजादी की लड़ाई में असमी, बंगाली, तमिल, मलायकम, तेलुगु उडि़या हिन्दी आदि भाषा-भाषी जो एक मंच पर थे, भाषाओं की टकराहट के संवाहक बन गए, सन 1964-65 में ऐसा लगने लगा कि कहीं देश उत्तर दक्षिण की सीमाओं में न बंट जाए। राजनीति की बागडोर बाजीगरों के हाथ में जाने लगी। बाजीगर भी विभिन्न शैलियों में डुगडुगी बजाकर जनता का ध्यान अपनी और आकर्षिक करने में लग गए। देश में ही कई विदेशी धाराएं मनमोहक रूप में अपना प्रभाव दिखाने लगी। ऐसी स्थिति आखिर कब तक सही जाती। एक सीमा जब समाप्त हो गई तो कुछ रचनाकारों को सामान्य व्यक्ति की पीड़ा की अभिव्यक्ति हेतु सामने आना पड़ा। उन्होंने अपनी रचनाओं में आक्रोश तथा विद्रोह के तेवर दिखलाए और जनसामान्य में गये तथा सरल रूप में प्रचलित भाषा के साथ तेवरी ही समाज के सामने एक विधा के रूप में आई। सरसरी तौर पर दूर से देखने पर तेवरी की शक्ल ग़ज़ल के रूप में दिखाई देने पर तथाकथित ग़ज़लकारों [ विशेषकर हिन्दी ग़ज़लकारों ] ने पूरा जोर लगाकर इस विधा का विरोध किया, शायद अपनी प्रभुता का ताज मैला होने के भय से या किसी अन्य जमीदारी खत्म होने के अन्तर्भय से। साहित्यकारों के एक वर्ग ने इस विधा का स्वागत भी किया। कुछ खेमे के मठाधीशों को अगुआई में तेवरी पर विभिन्न माध्यमों से प्रहार भी किए गए। किन्तु जर्जर कश्ती’, ‘ तेवरी पक्ष’, ‘सम्यकआदि नामक पत्र-पत्रिकाएं ऐसे झंझावातों के सामने डटे रहे। जनवादी सोच के कुछ विद्वान साहित्यकारों ने आवाज उठाई कि जब हम लोग ही समाज की विसंगतियां दूर करने में लगे हैं तो आपका तेवरी आन्दोलन अलग कैसे, ऐसे ही स्वर कुछ तथाकथित प्रगतिशील कहलाने वाले खेमों से भी आये। किन्तु तेवरी आन्दोलन अपने ही बूते पर जनता की मूक वाणी को शब्द देते चला आ रहा है। अनेक विरोधों-अवरोंघों के बावजूद वह और आगे बढ़ेगा ऐसी हमें आशा है। ग़ज़ल विधा का हृदय एवं मस्तिस्क से सम्मान करते हुए ग़ज़लियत के कथ्य से अलग तेवरयुक्त लिखी गई तेवरियों के प्रति आशावान भी है।

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