तेवरों
से सम्पृक्त संग्रहः ‘ये
ज़ंजीरे कब टूटेंगी’
+मदन
मोहन उपेन्द्र
------------------------------------------------------------------
सृजन
सदैव दो धाराओं में हुआ है, एक ओर
सताधीशों के मन बहलाव के लिए तो दूसरी ओर शोषित-पीडि़त के पक्ष में व्यवस्था
परिवर्तन की जद्दोजहद के लिए। तेवरी कविता शोषित-पीडि़त के लिए समर्पित
काव्य-साधना है। यद्यपि प्रगतिशील, जनवादी
कविता के अनेक रूप-स्वरूप हैं यथा-जनगीत, जनकविता,
जनगज़ल एवं तेवरी आदि हैं,
किन्तु हिन्दी-उर्दू-ग़़ज़ल के फार्म में जन को
समर्पित कविता को भले ही अनेक नामों से परसीमित किया जाये किन्तु तेवरी का परिचालन
अधिक सार्थक सिद्ध हुआ है। ‘सप्तक’
की परम्परा के समान ही तेवरी के भी अनेक कवियों के
सामूहिक संकलन छपे हैं। उन्हीं नामों में से चर्चित नाम है कवि श्रेष्ठ श्री दर्शन
बेज़ार का। यद्यपि दर्शन बेज़ार ने स्वयं को प्रचार-प्रसार से दूर रखा है,
किन्तु लिखा जमकर है और धारदार लिखा है। इनका पूर्व
संग्रह ‘देश खण्डित हो न जाए’
काफी चर्चित रहा है। इसकी रचनाओं में तेवर-ताजगी
एवं आक्रोश परिलक्षित होता है। व्यवस्था-विरोध, शोषित
की बेबसी आदि का विवरण धारदार काव्य-पंक्तियों में व्यक्त हुआ है। यथा-
अब कलम तलवार होने दीजिए
दर्द को अंगार होने दीजिए।
‘एक
प्रहार लगातार’ एवं ‘देख
खण्डित हो न जाए’ तेवरी
संग्रहों के उपरान्त प्रस्तुत तेवरी संग्रह ‘ये
जंजीरे कब टूटेंगी’ भी उसी
तेवर एवं तासीर के साथ अपनी धारदार तेवरियों के लिए पहचान बनायेगा। संग्रह की
प्रथम तेवरी की प्रारम्भिक पंक्तियों का तेवर अपनी धार,
तीखी बानगी से कितना तप्त है,
जरा देखिए-
जालिमों के रक्त-प्यासे तीर को
तोड़ दे पांवों पड़ी जंजीर को,
लड़ लड़ाई और भूखे पेट तू
अब बदलना है तुझे तकदीर को।
इतना ही
नहीं एक और तेवरी के तेवर भी कम नहीं हैं-
जुल्म आदमी का खुद पै जारी है
हाथ में बरछियां,
कटारी है।
बांझ इन्सानियत हुई बैठी
पांव हैवानियत का भारी है।
अपने
पारिवारिक एवं ग्रामीण परिवेश का चालीसा कहते-कहते भी कवि बेज़ार ने अपनी तीखी
बेज़ारियत एवं व्यवस्था के विपरीत आक्रोश को जारी रखा है। वास्तव में उनका जैसा भी
सोच रहा है, यह
यथार्थ और अभिव्यक्ति की सचाई है कि उनका दर्द उनकी तेवरियां बयान करती हैं यथा-
खून से दीवार पर लिक्खी हुई तकदीर
है
आज सीने में समाई हर किसी के पीर
है।
वस्तुतः
संग्रह की तेवरियों में दर्शन बेज़ार द्वारा देखे-परखे और पग-पग पर छले गये,
दले गये एवं कुचले गए इन्सान की नग्न तस्वीर उजागर
हुई है यथा-
मिल गया अस्सी करोड़ों को बहुत
पहले स्वराज
पर नहीं बदला अभी भी सामंतशाही का
मिजाज।
वर्तमान
कवि एवं कविता पर भी बेज़ार ने तीखा प्रहार इस प्रकार किया है-
दिनकर की हुंकारें गायब मंचों से
मात्र चुटकुलाविज्ञ हमारे भाई अब।
अस्तु!
अनेक प्रहार पर प्रहार वह भी धारदार कवि दर्शन बेज़ार की तेवरियों में निहित हैं।
यह तो मात्र बानगी के रूप में कतिपय अंश प्रस्तुत किये गये हैं। संग्रह में
प्रस्तुत 48
तेवरियां अपनी तेवरी-तासीर एवं संजीदगीयुक्त ताजगी से भरपूर हैं जिनमें गागर में
सागर जैसा विस्तार है। पूर्ण विश्वास है कि इस संग्रह को साहित्य जगत एवं प्रबुद्ध
पाठक वर्ग शालीनता से अपनायेगा और शुद्ध समालोचनाओं को भी बल मिलेगा।
No comments:
Post a Comment