नयी
ज़ंजीरों को कैसे तोड़ा जाए
+डॉ.
श्रीमती सुमन शर्मा
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‘ये ज़ंजीरें
कब टूटेंगी’ तेवरी-संग्रह
की कविताओं में कवि दर्शन बेज़ार ने अपनी भावानुभूतियों को सशक्त भाषा के माध्यम
से व्यक्त किया है। कवि सदृदय होता है। वह अपने चारों ओर जो देखता है,
उसे देखता ही नहीं अपितु अनुभव भी करता है। अनुभव
के इसी भाव को काव्य-शास्त्रियों ने भाव का साधारणीकरण कहा है। मैं काव्य-शास्त्र
की परिधि से मुक्त होकर इस संकलन की तेवरियों के विषय में अपनी बात कह रही हूं।
बेज़ार
की तेवरियों में समाज के विशेषतः स्वातंत्रयोत्तर समाज के विभिन्न पक्ष
प्रतिबिम्बित होने के साथ-साथ स्वयं अपनी व्यथा-कथा की परतें खोलते हैं। उन परतों
को जो ढकी हुई हैं-स्वतन्त्राता प्राप्ति के पर्दे के नाम से,
पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से किये गए विकास के
नाम से, गरीबी के उन्मूलन और
आर्थिक प्रगति के नाम से, बेरोजगारी
मिटाने के नाम से, पंचायती
राज की स्थापना के नाम से, भाईचारे
की भावना और समरसता के सिद्धान्त के विकास के नाम से। कवि ऐसे अनेक भावों के साथ
साक्षात्कार कराता है और उन्हें जन-जन के मन तक पहुंचा कर बताना चाहता है कि आज के
भौतिकवाद ने, आज के
धन-बल एवं छल-कपट सम्पन्न चातुर्य भाव ने व्यक्ति को व्यक्ति से कैसे काट दिया है।
ऐसे सभी भावों ने जंजीरों का रूप धारण कर समाज को बुरी तरह जकड़ लिया है। हमने
गुलामी की जंजीरें तो तोड़ दीं, लेकिन
इन नई जंजीरों की बेडि़यों को कब और कैसे तोड़ पाएंगे?
कवि बेजार पूर्णतः आशावादी हैं। उनके हृदय में एक
ऐसी क्रान्ति लाने की भावना है जो तेवरियों के माध्यम से प्रकट होकर
शोषित-पीडि़त-भयाक्रांत जन के मन-मानस में इन सबके विरुद्ध एक संगठित आदर्श
विद्रोह की भावना जाग्रत कर दे, जिसकी
सबल शक्ति से सभी ज़ंजीरें चूर-चूर हो जाएं। इस श्रेष्ठ कार्य के लिए वह चेताता
है। कवि-वर्ग को कहता है कि वह अपनी ओजस्वी वाणी से अलख जगाए।
काव्य
बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय तथा सुरसरि-प्रवाह की रीति से सबकी समृद्धि करने वाला
होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति का माध्यम भाषा होती है जो सामान्यजन तक उसे
पहुंचा सके। बेज़ार की तेवरियों की भाषा सामान्य जन की सरल भाषा है,
जिसमें प्रयुक्त प्रचलित मुहावरे और कहावतें
कुव्यवस्थाओं, सफेदपोश
नेताओं और ईमानदारी का कवच पहने समाज में फैले भेडि़यों पर तीखा व्यंग्य करते हैं।
मैं अपनी बात को अधिक न बढ़ाकर प्रस्तुत संकलन की तेवरियों से कुछ चुनी हुई
पंक्तियों जो पाठक के हृदय पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं,
यहां प्रस्तुत करती हूं-
‘‘बांझ
इन्सानियत हुई बैठी,पांव
हैवानियत का भारी है।’’
‘‘एक
बंटवारे के गम से हम उबर पाये न थे,
दूसरे
बंटवारे की करने लगे तैयारियां।’’
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