तेवरीःआमजन
के विद्रोह की भावना
डॉ.
अभिनेष शर्मा
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प्रस्तुत
तेवरी संग्रह ‘ ये ज़ंजीरें कब टूटेंगी ‘ सार्थक सृजन प्रकाशन से प्रकाशित ऐसा
सुरभित पुष्प है जो हिन्दी साहित्य के गुलदस्ते में अद्वितीय सुगंध रखता है। इसकी
सुरभि का रसास्वादन जितनी भी बार करें कहीं न कहीं तृष्णा बची रहती है। रचना किसी
भी रूप में हो, किसी न
किसी पहलू पर तर्क का स्थान बना रहता है। आलोचकों को सिर्फ यही सिद्ध करना अच्छा
लगता है कि सृजित रचना का रूप क्या है, उसका
मान क्या है? रचना की
गुणशीलता कैसी है, इसके
आत्मरूप से उन्हें कोई सरोकार नहीं होता है। इसी परिप्रेक्ष्य में तेवरी को भी
आलोचकों की कसौटी पर यही सोचकर रखा जाता है कि तेवरी ग़ज़ल है या नहीं या यह एक
अलग विधा है। इसमें प्रेम है या नहीं, विसंगतियां
है या नहीं।
तेवरी
आमजनों के विद्रोह की पीड़ा की अभिव्यक्ति है या फिर राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत
हृदय की हुंकार है। किसी भी रचना की कमनीयता, सार्थकता
उसकी विवेचना में नहीं उसके प्रयुक्त शब्दों के मुखर प्रदर्शन में है और प्रस्तुत
संग्रह की सभी रचनाओं में इस पंरपरा का बखूबी निर्वाह हुआ है। संग्रह का शीर्षक ‘ये
जंजीरे कब टूटेंगी’ अपने आप
में बहुत कुछ बयान कर देता है। तभी तो तेवरीकार कहता है-
तू नहीं रांझा,
प्रलय का गीत तू
छोड़ दे ग़ज़लों में डूबी हीर को।
इस
संग्रह में गांव हैं, तरक्कीपसन्द
लोग हैं । आजकल की लूटकारी नीयत है। व्यंग्य के तीर हैं । दहशत में डूबी आंखें
हैं। आपस में खंजर थामकर लड़ते हुए, एक
दूसरे पर जुल्म ढाते हुए आदमी हैं व इन्हीं संदर्भों को लेकर रचनाकार का जीवंत
कथ्य है।
पिछले वर्षों में तरक्की ये है-कि गांव में सिर्फ
कागज की सड़क है। सुख के नाम पर गांव और उसके घरों में होने वाले बंटवारे का दर्द भी रचनाओं में
उकेरा गया है। तभी तो नाती-नातिन का जिक्र इस प्रकार है-
नाती-नातिन की किलकारी भी दुःख का
उपचार नहीं।
एकाकी जीवन का क्रंदन अश्रुपात
में होना है।
स्वराज
मिला भी और नहीं भी। मिला एक धोखधड़ी से भरा जनता के साथ खिलवाड़। अखण्ड भारत को
खण्ड-खण्ड करती साजिश-
छत पर दाने कल परिंदो को बिखराकर
गया
आज कोने में छिपा बैठा है वो ही
बनकर बाज
संग्रह
में हर संबंध पर कुछ न कुछ लिखा गया है। हर एक तेवरी के तेवर खासे तीखे हैं।
उम्मीद है कि यह तीखापन बरकरार रहेगा और हम सब आलोचनाओं-प्रत्यालोचनाओं को पीछे
छोड़कर खालिस तीखी तेवरियों का रसास्वादन करते रहेंगे।
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