अनूठी
काव्यकृति-एक प्रहारःलगातार
+मधुसूदन
शर्मा
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‘‘क्रान्ति
से प्रयोजन है कि अन्याय पर आधारित वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन आना चाहिए...
यदि सभ्यता के ढांचे को समय रहते न बचाया गया तो वह नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगी।’’
बम-कांड
के अभियुक्त भगत सिंह के मि. पूल की अदालत में दिये गए उपरोक्त बयान का भाव ही
सम्भवतः दर्शन बेजार के तेवरी संग्रह ‘एक
प्रहारः लगातार’ का
उपजीव्य एवं अभिप्रेत है! देश की दम तोड़ती संस्कृति जीवन मूल्यों के साथ तथाकथित
जनसेवकों, सन्तों,
को प्रहारात्मक मुद्रा प्रदान करना समय की महती
आवश्यकता है। ‘तेवरी’
ऐसी ही कार्यवाही है,
जो सामाजिक संत्रास की तिल-तिल भोगी गई पीर का
विद्रोही किन्तु स्वस्थ आक्रोश है।
प्रस्तुत संग्रह में अड़तालीस तेवरियां है। इनमें
सामाजिक बदलाव की आग है, आर्थिक-सामाजिक
शोषण में डूबी अवसरवादी राजनीति को बेपर्दा करने के प्रयास हैं | कहीं धर्म और
सम्प्रदाय को अपने स्वार्थ के लिये भुनाने वालों का मुखौटा उतारने की कोशिश की गई
है तो कहीं कलम को कुर्सी की चाटुकारिता करने पर धता बताई गई है। कुल मिलाकर यह
समाज के लुटेरों, आतंकवादियों,
मौकापरस्तों, विघटनकारियों
के खिलाफ एक भावमय और सृजनशील श्वेतपत्र बन गया है। बेलिन्सकी ने एक जगह कहा है कि
आज के सौन्दर्य का आदि और अन्त मनुष्य है | बेजार ने इसी मनुष्य को असहाय,
निराश, विवश
और त्रासद कुरुपताओं के घटाटोप से उबारकर ‘तमसो
मां ज्योतिर्गमय’ स्थिति
में पहुंचाने का अदना-सा प्रयास किया है, इसीलिये अपने इस अदने प्रयास को उन्होंने
क्रान्तिधर्मी भगत सिंह को सोंप दिया है।
देश की खोई शान पर आंखें नम कर कवि अपनी बात की
शुरुआत करता है। उसे दुख है कि भूख, शोषण,
आतंक, उत्पीड़न
और अराजकता से त्रस्त जिन्दगी को अब बहशियों की सभ्यता ढोनी पड़ रही है। जिन्दगी
अभी तक विश्वासों की मृग-तृष्णा के रेत में पड़ी मछली की तरह छटपटाती रही है- कंठ
में बदलाव की आशा-अपेक्षाओं की प्यास को जबरन छिपाए, वह अब डंके की चोट कह देता
है कि समझौतापरस्त जिन्दगी किसी बेजार की ही थीः
सिर्फ
समझौता नहीं है जिन्दगी
एक
जलती आग भी है सत्य में।
सम-सामयिक जीवन पर राजनैतिक और अर्थ की जकड़न बढ़ती
ही जा रही है। प्रत्येक घटना या स्थिति के पीछे स्पष्टतः ये ही हाथ होते हैं।
राजनीतिज्ञों के गिरगिटिया स्वरूप और मत्स्य न्याय व्यवस्था पर कवि खीझ उठता है |
वह जानता है कि कानून सिर्फ उन्हीं के लिए है जिनके घर दो जून की रोटियां भी नहीं।
आज कुर्सी चोरों के लिए है। देवता सींकचों में बन्द हैं। सत्य,
न्याय, ईमान
निर्वासित हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों की भीड़ भी उन्हीं की वकालत कर रही हे जो
झूठी सियासत कर रहे हैं, जो लूट
के धन से जियारत कर रहे हैं-दोस्ती में अदावत कर रहे हैं। कवि जानता है कि आम आदमी
को अपने देवताओं के दर्शन कभी नहीं होते, मीरा
को कन्हैया कहाँ मिला है- गोपियों के पास कृष्ण कब गए हैं?
फिर भी यह भीड़तंत्र मीरा-गोपियों के रूप में
देर-सवेर झलक पाने को प्रतीक्षारत है। आदमी आज खौफ और आतंक में आकंठ डूबा हुआ है,
यहां न्याय की बात करना जुर्म है-
रोशनी
की बात की जिस आंख ने
आपने
उस आंख में तकुबे किये।
या
जो
मदारी भीड़ ले जितनी जुटा
लूट
लेता उतना वो जनतन्त्र है |
पूंजीवादी शक्तियों का जाल शहरी-कस्बाई और ग्रामीण
तीनों जीवनों पर छाया हुआ है। गांव का सुखी-निश्छल जीवन भी अब इनके विषवमन से
विषाक्त हो गया है। राजनीति और अफसरशाही के दलालों ने भले लोगों का जीना दूभर कर
दिया है। यौनशोषण, लूट-खसोट,
आतंक वहां आम बन गए हैं-
लूट
की भाषा कपट का व्याकरण
अब
बने कौमी-तराने गांव के।
या
जिस
हवेली को रियाया टेकती
वह
हवेली जिस्म के व्यापार का अड्डा रही।।
साम्प्रदायिकता और धार्मिक उन्माद के उत्पादक
अलगावादी धर्म-नेताओं, संतों को
भी बेजार की लेखनी ने बख्शा नहीं है। चाहे पंजाब का हो या अलीगढ़-गुजरात-भिवंडी के
दंगे-कवि ने सभी के पीछे छिपे तथाकथित संतों, सूफियों, शान्ति-पुजारियों के
मंसूबों की कलई खोल दी है। अपवाहों का जहर आपस में विरक्ति पैदा कर रहा है। मजहब
हमें करफ्रयू की सभ्यता सिखा रहा है-
धर्म
के उपदेशकों ने आजकल
शान्ति
का प्रस्ताव ठुकराया हुआ है।
या
जान
का दश्मन बना क्यों भिंडरा
सन्त
पर हैवानियत आसीन क्यूं?
कविता जो अब तक भावनाओं और मांसलता की रूपपरी बनी
बैठी थी वो अब अपने बदलते तेवरों के साथ दिखाई देती है। कविता अय्याशी नहीं कटु यथार्थ है और अय्याश किसी की मजदूरी
या मुसीबत को कब समझते हैं?
नर्तकी
के पांव घायल हो रहे
देखता
अय्याश कब यह नृत्य में।
या
जो
विदूषक मंच हंसता रहे
सिसकियां
भरता वही नेपथ्य में।
आज भूख की फसल घर-घर उगी हुई है। पेट की चाहत क्या
पहले भी ऐसी थी कि वह पराए हाथ की रोटियां भी छीन ले?
पेट ही जिस्मफरोशी को मजदूर कर रहा है। यहां तक कि-
हो
गये हर रात को अक्सर
भूख
में सहवास के टकड़े।
साहित्यकार समाज का जागरूक प्रहारी होता है। किन्त
यदि प्रहरी ही सिक्काई-संस्कृति के हाथों बिक गया हो तो वह आजाद,
बोस, मंगल
पाण्डे की तुलना गद्दारों और कफनचोरों से करेगा ही। जब साहित्य मात्र दरबारी होकर
रह जाएगा तो कबीर और मीरा, चन्द
सिक्कों के लिये ट्रेन बस या मंच-विश्वविद्यालयों में भुनाए जाएंगे ही। निराला
बेचारा विक्षिप्त ही रहेगा। नई-नई प्रतिभाओं को खस्सी करने,
बौना और बर्बाद करने का षडयंत्र चलता ही रहेगा। ऐसी
स्थिति में साहित्य को अंगारों से लिखने के सिवाय चारा ही क्या है?
ऐसे अंगारी साहित्य से क्या भोपाल या नवम्बर में दिल्ली
के दंगों को भुलाया जा सकेगा?-
हादिसा
भोपाल जैसा ही यहां पर हो गया
एक
जहरीली हवा की हर तरफ चर्चा रही।
कत्ल
के दौरान जब मासूम तक बख्शे नहीं
तब
यहां रोई सबकर रूह हिन्दुस्तान की।
‘एक
प्रहार लगातार’ को
प्रहारक तेवरीकार यह मानकार चलता है कि अत्याचार शोषणविहीन समाज की स्थापना ही
उसका मकसद है। और वह उसे तार्किक व शाश्वत ही ठहराता हैं उसकी विवशता-आक्रोश नहीं
चेतावनी बनते हैं तो कहीं ओज, उत्साह
भरी ऐलानी मनादी-
आप
इस ‘बेजार’
से मिल लें जरा
आग
से कछ रूबरू हो जाएंगे।।
इन
अलावों में लकडि़यां डालिये
आग
थोड़ी और जलने दीजिए।।
अथवा
लिख
रहा हूं दर्द की स्याही से जिनको
क्रान्ति
की बू आएगी कल उन खतों से।।
बस इसी कल के इनतजार में वह जी रहा है। वह दिनकर की
इस मान्यता से सहमत है कि, ‘‘दानवी
रक्त से सभी पाप घुलते हैं’’ तभी तो
उसका कहना है-
इस
जमीं का जालिमों के खून से
अब
नया श्रृंगार होने दीजिये।
इसके साथ ही आलोच्य संग्रह में बेजार ने सुकरात,
बिस्मिल, मंजूर,
मरियम, द्रोपदी,
पांडव, मीरा-श्याम,
राम-रावन, निराला-कबीर
आदि पौराणिक, वैष्णव
प्रतीकों को नवीन अर्थ देकर,
मानवीय संवेदना से जोड़कर अपनी प्रगतिशील दृष्टि का
परिचय दिया है। कृष्ण से तो उसे कुछ ज्यादा ही लगाव दिखाई देता है।
शिल्प और शर्तों की दृष्टि से ग़ज़ल का प्रतिरूप
प्रतीत होती इन तेवरियों को तेवरीकारों के कथ्य की दृष्टि से एक स्वतन्त्र विधा
माना है। बकौल रमेशराज ग़ज़ल अपनी कोमल सौन्दर्यमयी मानसिकता से बाहर निकलने का
साहस बहुत कम कर पाई है, और जहां
उसने ऐसा किया भी वहां अपना विचित्र रूप बना लिया है। तेवरीकार यह मानकार चलते हैं
कि-
आदमी
को अर्थ दे जीने के जो
लाइये
तासीर ऐसी कथ्य में।
प्रस्तुत संग्रह को शृंगार-प्रेमिका से दूर रखना एक
उपलब्धि कही जा सकती है। लेकिन देखना यह है कि श्रृंगार-प्रेम की भावना क्या इंसानियत
के पैरों की हमेशा ही बेडि़यां बनती है-प्रेरणा प्रदातक कभी नहीं?
इस अस्पृश्यता के पीछे कोई ग्रन्थि तो नहीं?
दलीय पूर्वाग्रह में ‘सहितस्य’
भाव होने पर भी मैनीपैस्टी जैसी बू आने की आशंका
रहती है। आशा है तेवरीकार यहां सतर्क रहेंगे! विषय या [ कथ्य ] की पुनरावृत्ति भी
तेवरीकारों की कमजोरी बन सकती है। लीक से हटने का कोई भी ‘नौजवानी’
प्रयास तथाकथित साहित्यदांओं को रास नहीं आता।
तेवरी-आन्दोलन को इस बुर्जुआ-मानसिकता की धुरपटों से सतर्क रहना पड़ेगा।
कुल मिलाकर ‘एक
प्रहारः लगातार’ उत्तम
प्रेरणा प्रदायक संग्रह बन गया है। इस सामाजिक-राष्ट्रीय संत्रास के समय बेजार की
बेजारी एक जागरूक बुद्धिजीवी-साहित्यजीवी की पीड़ा है और प्रस्तुत संग्रह उस
पीड़ा-प्रसूति का परिणाम। परिस्थितियां कितनी भी विपरीत और त्रासद क्यों न हों मनष्य
की जिजीविषा के समक्ष अतंतः बौनी हो जाती है। क्योंकि हजारी प्रसाद द्विवेदी के
अनसार,‘‘मनुष्य परिस्थितियों से
बड़ा है-बशर्तैं वह ‘मनुष्य’
हो, किसी
तरह जीवित रहकर मरने की तैयारी करते रहने वाला भुनगा नहीं-मनुष्य।’’
दर्शन बेजार का यह प्रथम संग्रह मनुष्य की इसी
अदम्य शक्ति को जुझारू रूप देने का ईमानदार प्रयास है। आशा है बेजार जी दुष्यन्त
कमार की तरह यह सिद्ध करने का हमेशा साहस रखेंगे कि-
‘‘सिर्फ
हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी
कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।’’
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