संख्या-बल लोकतंत्र का मूल आधार
+दर्शन
बेजार
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लगभग सत्ताई-अट्ठाईस वर्ष पूर्व जनपद मुजफ्रफर नगर
के कस्बा ‘खतौली’
में आयोजित एक साहित्यिक विचार-गोष्ठी में श्री ऋषभदेव
शर्मा ‘देवराज’
तथा डॉ. देवराज ने जनसापेक्ष कविता जो कथित
ग़ज़ल-शिल्प में लिखी जा रही थी, को
‘तेवरी’
नाम देकर एक नई विधा को जन्म दिया। इस विधा पर
जर्जर-कश्ती, सम्यक,
प्रसंग आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में समय-समय पर
प्रभावी ढंग से विचार प्रस्तुत किए गए। सार्थक सृजन की त्रौमासिक पत्रिाका ‘तेवरीपक्ष’
का तो नाम ही तेवरी-विधा के अनुरूप रखा गया। ग़ज़ल
के समर्थकों ने हिन्दी ग़ज़ल के चलते अलग से ‘तेवरी’
नाम रख दिए जाने का पुरजोर विरोध भी किया जो अब तक
जारी है। यहां तक कि तेवरी शीर्षक से लिखने वाले तेवरीकारों के लिए कुछ खास
मर्यादाविहीन विशेषणों का भी समय-समय पर प्रयोग किया जाता रहा। तेवरीकार प्रारम्भ
से ही जनसापेक्ष रचनाकर्म में लिप्त रहे हैं और उपेक्षित से उपेक्षित व्यक्ति की
पीड़ा की अभिव्यक्ति में तल्लीन रहे हैं। उन्हें कभी भी छापने-छपाने की,
सुनने-सुनाने की लालसा नहीं रही। वे अपनी बात कहते
रहे हैं। लोकप्रिय-अलोकप्रिय होने न होने का साहित्यिक समीकरण उन्हें कभी छू नहीं
पाया।
भले ही हमारे समाज ने घन बल,
भुजबल को कभी स्वीकार नहीं किया हो किन्तु संख्याबल
तो लोकतंत्र का मूल आधार ही है। वर्तमान में मंच, सभाओं,
गोष्ठियों में ग़ज़ल इतनी पैठ जमा चुकी है कि ग़ज़ल
सुनने-सुनाने वालों की संख्या के आगे कोई भी ठहरता हुआ नहीं दिखाई पड़ता। ग़ज़ल के
भी दो हिस्से कर दिए गए- उर्दू ग़ज़ल एवम् हिन्दी ग़ज़ल। इस पर चर्चे भी खूब हो
रहे हैं। अन्य विधाएं हाशिए पर चली गई प्रतीत होती हैं । कवित्त,
घनाक्षरी, रोला,
दोहा के लोकप्रिय रचनाकार भी आज लोकप्रिय न रहने के
लालायित होकर मंच पर अपनी रचना का प्रारम्भ किसी ग़ज़ल के शे’र से ही करते दिखाई
दे जाएंगे। व्यावसायिकता में आज ग़ज़ल सर्वोच्च शिखर पर है। फिर भी कुछ दो-चार
तेवरीकार ‘तेवरी’
नाम की ध्वजा उठाते हुए यदा-कदा देखे-सुने जा सकते
हैं। किसी भी विधा को स्थापित कराने के लिए साहित्य के मठाधीशों की कृपा-दृष्टि
प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। किन्तु तेवरीकार किसी भी मठाधीश के मठ में मुहार
लगाने के बजाय अपने लेखन में सर्वहारा उपेक्षित, शोषित,
पीडि़त, मेहनतकश
मजदूर मात्र से ही आशीर्वाद प्राप्त करने की ललक लिए हैं। चुटकियों में बड़े-बड़े
आयोजन करा डालने वाली संस्थाओं, सेठों,
साहूकारों की ड्योढ़ी तक जाने में तेवरीकार स्वयं
को तुच्छ समझने लगते हैं। ऐसे में उनकी रचनाओं का प्रचार-प्रसार कोई क्यों करेगा।
विभिन्न माध्यमों से अपनी बात पहुंचाने के लिए माध्यमों के पास जाना ही पड़ता है।
माध्यम किसी के पास खुद क्यों जाएगा। प्यासा ही कुंए के पास जाता रहा है।
साहित्य को समाज का दर्पण माना गया है। समाज के रूप
का छायांकन साहित्य में ही देख लिया जाता है। उत्तर भारत में विभिन्न मांगलिक
अवसरों पर बन्ना-बन्नी, गारी,
सोहर, डोली
आदि का गायन आज भी प्रचलित है। यदि ऐसे अवसरों पर इन गायनों में से मूल तत्व ‘बधाई’
निकालकर क्रान्ति, परिवर्तन के स्वर आधुनिकता [ जदीद
] के नाम पर पिरोए जाएंगे तो वे फिर बन्नी-बन्ना, सोहर
कहां रह पाएंगे? संख्या-बल
का सहारा लेकर यदि हम इन विधाओं में से प्राण तत्व ‘बधाई’
को ही निकाल फैंक कर क्रान्ति, परिवर्तन की स्थापना
करने की जिद करेगें तो समाज में अंततः एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाएगी और
साहित्य स्वयं दिशाविहीन हो जाएगा और स्थापित विधाएं एक-एक करके दम तोड़ देंगी।
ग़ज़ल का प्राणतत्व ही प्रेम है। यदि यह तत्व
ही ग़ज़ल से बाहर खींच लिया जाएगा तो फिर ग़ज़ल, ग़ज़ल
नहीं रह पाएगी, इसी
प्रकार बिहार झांरखण्ड, पूर्वाचल
उ.प्र. में प्रचलित ‘विदेसिया’
से विरह तत्व बाहर निकाल दिया जाएगा तो वह विदेसिया
न होकर कुछ और ही हो जाएगा। फारस से आई सुकोमल ग़ज़ल विधा सत्रहवीं सदी के मध्य से
भारत में स्थापित होना शुरू हुई। महान शायर वली ने ग़ज़ल को जन-जन तक पहुंचाया।
बली, मीर,
दर्द, मोमिन,
गालिब, जौक
से लेकर आरजू लखनवी, चकबस्त,
शैदा, जिगर,
फिराक, मजाज
आदि तक ग़ज़ल के शबाब में दिनों दिन निखार होता आया। वस्तुतः ग़ज़ल ने ही भारत को
नजाकत नफासत की एक नई संस्कृति से नवाजा।
विभिन्न विद्वान ग़ज़ल के शिल्प,
कथ्य के बारे में समय-समय पर इसका मूल्यांकन करते
रहे हैं। आज भी जिज्ञासुओं द्वारा साहित्य क्षेत्र में इस विधा पर लगातार शोध
कार्य किए जा रहे हैं । मुस्तफा अहमद खां मद्दाह द्वारा रचित ‘उर्दू-हिन्दी
शब्दकोष’, उ.प्र. हिन्दी संस्थान
द्वारा प्रकाशित शब्दकोश में ग़ज़ल का अर्थ ‘प्रेमिका से वार्तालाप’ ही है। फिराक
गोरखपुरी के अनुसार-‘ग़ज़ल का
मिज़ाज समर्पणवादी होता है। और यह दर्द भरी दिल की गहराई से निकलता आवाज़ है।’
डाॅ. नगेन्द्र के अनुसार-‘ग़ज़ल
का स्थाई भाव प्रेम है, जिसमें
रहस्यानुभूति, मस्ती,
रिन्दी आदि संचारी भाव हैं। ख्वाजा अहमद फारुखी के
अनुसार-‘जो कराह हिरन को तीर चुभने
के बाद बेकसी में निकलती है, वह ग़ज़ल
कहलाती है।’
जब
विद्वानों ने इतना कुछ पारिभाषित कर दिया है तो हम ग़ज़ल को ग़ज़ल क्यों नहीं रहने
दे रहे हैं। उसके मूलतत्व प्रेम को ही हम बाहर निकाल फैंक रहे हैं तो यह किस
अधिकार के तहत? यह
अधिकार हमें किसने दिया है कि नजाकत-नफासत की महक लिए साहित्य की एक बहुमूल्य
परम्परा ग़ज़ल से प्रेम-तत्व हटाकर, अन्य
तत्व भरकर उसे ऐसा बना दें कि वह अपनी पहचान ही खो बैठे। श्री नीरज ने ‘गीतिका’,
श्री चन्द्रसेन विराट ने ‘मुक्तिका’
नाम देकर जो परम्परा प्रारम्भ की,
वह ऐसी ही परिस्थितियों का परिणाम रही होंगी,
और वे अपनी रचनाओं को ग़ज़ल नाम देने से बचते रहे
होंगे। तेवरी भी बदलते चरित्र अर्थात् कथ्य के आधार पर संज्ञापित है,
इसे समझना चाहिए।
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