कवि
अपने युग, समाज और
परिवेश की देन
+डॉ.
भगवती प्रसाद शर्मा
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‘तेवरी-शब्द’
‘तेवर-शब्द’ का
स्त्रीलिंग रूप है जो विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। किसी व्यक्ति के विशेष स्वभाव
के कारण व्यक्त भाव को जो उसके व्यवहार या स्वभाव में किसी विशेष प्रबल प्रवृत्ति
को दर्शाता है-तेवर कहा जाता है। इसी तेवर शब्द से मुहावरा बनता है-‘तेवर
बढ़ना’, ‘तेवर चढ़ना’,
‘तेवर बदलना’, ‘तेवर
ढीला करना’ आदि।
तेवर-शब्द
कविता या काव्य-शब्द के पूर्व प्रयोग करने पर विशेषण का कार्य करता है और भाव
विशेष को अभिव्यक्त करने वाले किसी एक कविता विशेष को तेवरी कहने पर यह शब्द ‘संज्ञा’
रूप का बोध कराता है। इसका अभिप्राय यह है कि किसी
विशेष भाव या भावों, विशेष,
तथ्यगत कथ्यों एवं प्रवृत्तियों से युक्त कविता ‘तेवरी’
कही जाती है। इस दृष्टिकोण से विचार किया जाये तो ‘ये
ज़जीरें कब टूटेंगी’ तेवरी-संग्रह
तेवरी शीर्षक या तेवरी नामक या तेवरी कही जाने वाली कविता या कविताओं का संग्रह
है। इसकी पुष्टि इस कथन से होती है- ‘राष्ट्रीय
भावना, देशप्रेम,
शोषितों की पीड़ा बयान करती हुई दबंगों की अति के
विरुद्ध मुखर तेवरियों का संकलन।’
कवि ने
इस तेवरी संग्रह को शीर्षक दिया है- ‘ये
ज़ंजीरें कब टूटेंगी,’ जो
प्रतीकात्मक है। ‘जंजीरें’
प्रतीक है, बन्धनों
का और ‘टूटेंगी’
प्रतीक है, मुक्ति
का-स्वतंत्रता का। यहां ‘टूटेंगी’
शब्द का प्रयोग भी साभिप्राय है। कवि कह रहा है कि
सदियों से चली आ रही गुलामी से बनी शृंखलाओं से पीडि़तों के बन्धनों को खोलकर उन्हें
मुक्त करने की पहल। इन पीडि़तों को ही ऐसी शक्ति अर्जित करनी होगी जिससे ये बन्धन
स्वतः ही टूट जाएं और वे मुक्त हो जाएं। यह एक क्रान्तिकारी दृष्टिकोण है,
जिसको अपनाए बिना उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो
सकेगी।
कवि अपने
समाज, युग और परिवेश को देन होता
है। कवि दर्शन बेज़ार का जन्म एक सुशिक्षित एवं सम्पन्न परिवार में हुआ। ऐसे
परिवार में पले-बढे़ कवि के बालमन पर धार्मिक, सांस्कृतिक
एवं राजनीतिक कर्ताओं का गहरा प्रभाव पड़ा। विद्यार्थी जीवन में उसने चन्द्रशेखर
आजाद, भगत सिंह,
सुभाषचन्द्र बोस, वीर
सावरकर जैसे क्रान्तिकारियों की गाथाएं सुनीं और पढ़ीं। आदर्श शिक्षकों के साथ
रहकर उसने महात्मागांधी, विनोवा
भावे, सीमान्त गांधी और जयप्रकाश
नारायण जैसे महापुरुषों द्वारा संचालित स्वतंत्रता संग्राम,
भूदान, सर्वोदय
तथा अनेक समाज सुधारक आन्दोलन के क्रान्तिकारी स्वरूपों को सुना और देखा। कवि अपने
क्षेत्र के स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की त्यागमयी जीवन-गाथाओं और संघर्षमयी
यातनाओं की कहानियों को सुनकर प्रभावित हुआ। उसके जीवन को अनेक साहित्यकारों ने भी
प्रभावित किया। प्रेमचंद, कबीर,
महाप्राण निराला, कवि
घूमिल, मियां नजीर अकबराबादी जैसे
साहित्यकार और कवियों की रचनाओं से वह प्रभावित ही नहीं हुआ अपितु उन्हें अपना
आदर्श माना।
परिपक्व
भावानुभूति की अभिव्यक्ति काव्य कही जाती है। कवि दर्शन बेज़ार व्यवसाय से एक
अभियन्ता होने के नाते सरकार और समाज दोनों ही पक्षों से जुड़े होने के कारण सरकार
की नीतियों और समाज की विभिन्न विसंगतियों का सामना करते हुए अनुभवों की परिपक्वता
प्राप्त करते रहे हैं। वे विदेशी शासकों द्वारा सदियों तक देश और देशवासियों पर
किये गये अत्याचारों और शोषण की नीतियों से भलीभांति परिचित हैं। स्वतंत्रता-प्राप्ति
के साथ मिली आजादी के जिस नवीन वातावरण और राम-राज्य की सुनहरी कल्पना हमारे
पूर्वजों और आदर्शवान त्यागी नेताओं ने की थी, वह
‘आसमान से गिरी और खजूर पर
लटकी’ कहावत को चरितार्थ करने
वाली सिद्ध हुई।
‘ये ज़ंजीरें
कब टूटेंगी’ दर्शन
बेजार की तेवरी कविता का तीसरा संग्रह है। निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि ‘यथार्थ
की अभिव्यक्ति है दर्शन बेज़ार की तेवरी। कवि बेजार ने आज के मानव-जीवन को बड़ी
गहराई और सूक्ष्मता के साथ देखा ही नहीं अपितु उसे जीया है। आज का दैनिक जीवन अनेक
प्रकार के विवादों और संघर्षों से भरा हुआ है। आस्थाएं सुरक्षित नहीं हैं । आये
दिन कर्फ्यू लगा रहता है। व्यक्ति अपनी पीड़ाओं को व्यक्त नहीं कर पाता है-
‘दो कदम
और चला जाता नहीं अब राह में
जालिमों ने डाल दी हर पांव में
जंजीर है।
अब तो मासूमों की आंखें देखती कोई
न ख्वाव
उनसे अब हरदम छलकता बेबसी का नीर
है।’
हमने
स्वतन्त्रता प्राप्ति की यात्रा के साठ वर्षो से अधिक समय से अनेक योजनाएं,
विकास-कार्यक्रम तथा आर्थिक प्रगति के अनेकानेक के उपाय
किये हैं। सड़कों के माध्यम से गांवों को शहरों से जोड़ने का काम जारी है। लेकिन
गांवों की दुर्दशा अब भी प्रेमचन्द्र के होरी, धनिया
और कफन के पात्रों को सामने ला खड़ी करती है-
पिछले वर्षों में तरक्की ये है
सबकी गांव में
सिर्फ कागज पर सड़क है एक सुख की
गांव में।
फसल अब किसान की सब सूद में जाती
रही
हर तरफ तन को सुखाती भूख झलकी
गांव में।
देखकर सत्ता की लाठी पंच परमेश्वर
डरे
क्यों लगे चौपाल रे बेजार अब की
गांव में।
रक्षक आज भक्षक बन गए हैं । सुख-दुख के साथी आज घर
में फूट डाल रहे हैं। मानव को मानव का विभाजन भा गया है। जो बात होठों पर है,
व्यवहार में नहीं-
बांझ इंसानियत हुई बैठी
पांव हैवानियत का भारी है।
लुट गयी आज द्रौपदी यारो
देखिए कल की क्या तैयारी है।
राजनेताओं
के भाषणों और प्रगति रिपोर्टों के आंकड़े आकर्षक तो हैं लेकिन देश पर उत्तरोत्तर
चढ़ते कर्ज की भी कोई सीमा नहीं है-
कर रहे हैं वे निरंतर घोषणाएं
कर्ज की बैसाखियों पर जो खड़े
हैं।
हर किसी को दे रहे झूठी दिलासा
शब्द जिनके धूर्त वाणी से जड़े
हैं।
एक रोटी का यहां टुकड़ा पड़ा है
श्वानवंशी नित परस्पर अब भिड़े
हैं।
बेच देंगे ये सियासतदां वतन का
शर्म क्या ‘बेजार’
सब चिकने घड़े हैं।
हम
आज उस नई सभ्यता के साथ दौड़ रहे हैं, जिसने
अपने त्यागी, बलिदानी
एवं क्रान्तिकारी पूर्वजों को भुला दिया है और जो अवसरवादियों का गुणगान कर रहे
हैं-
भूल गयी सभ्यता उन्हें जो इन्कलाब
लेकर आए।
पूजे उनके चरण,
मंच पर भाषण जो करने आए
भुला दिए वे लोग चढ़े जो
हंसते-हंसते फांसी पर
झपट विराजे कुर्सी पर हमने उनके
ही गुण गाए।
आतंक
सर्वत्र अपना सिक्का जमाए बैठा है जिसे देख बेज़ार तड़पने लगता है-
है कहां इस गांव में वो बात अब
बेज़ारजी
धूप में भी घिर रही है रात अब
बेज़ारजी।
गांव का सरपंच भी आतंक का पर्याय
है
खून की है हर तरफ बरसात अब
बेज़ारजी।
भेडि़यों की रक्तरंजित सभ्यता के
सामने
आदमी की क्या रही औकात अब
बेज़ारजी।
आज
वन्दन करने वाले और आशीष देने वाले भी झूठ के बल पर अपना ब्यूह बनाए बैठे हैं-कवि
सावधान करता है-
यह तो चोरों की बस्ती है,
अपनी गठरी तू सम्हाल रे
यहां गिरहकट सुंदर-सुंदर हाट सजाए
बैठे हैं।
पूछेगा ‘बेजार’
न कोई तेरे सच के सिक्के को,
यहां झूठ के सिक्के ही बाजार दबाए
बैठे हैं।
कवि
ने ऐसी अनेक विसंगतियों को अपनी तेवरी का विषय बनाया है जिनसे मुक्ति पाये बिना
समाज का विकास और उन्नति सम्भव नहीं है। इन्हें मिटाने के लिए कवि समाज को
विरुदावालियों और चालीसा लिखने के बजाय वैचारिक क्रान्ति लाना होगा। संघर्षों को
झेलना होगा-
सींखचों को देखकर तू हो न यूं
भयभीत रे
आग उगले लेखनी कुछ इस तरह रच गीत
रे।
भूल से तुझको न छू ले राजसी
अभिव्यंजना
लिख समय का सत्य,
कर ले झौंपड़ी से प्रीत रे।
कवि
का संदेश है-
हम आग लगा देंगे उस रोज जहां में
मजबूर जुबां को जो जमाना दबाएगा।
हम तोड़ ही डालेंगे शमशीरे-नादिरी
बेजार कोई जब यहां खंजर उठाएगा।
कवि
तेवरी लिखने का उद्देश्य भी स्पष्ट करता है-
जालिमों के रक्त प्यासे तीर को
तोड़ दो पांवों पड़ी जंजीर को
लड़ लड़ाई और भूखे पेट तू
अब बदलना है तुझे तकदीर को।
आंख हो तेरी सदृश ज्वालामुखी
दहकता अंगार पाले पीर को।
तू नहीं राझा,
प्रलय का गीत तू
छोड़ दे ग़ज़लों में डूबी हीर को।
है अगर बेज़ार लिख तू तेवरी
थाम ले हाथों में इस शमशीर को।
स्पष्ट
है कि तेवरी तलवार है, मुक्ति
के लिए शमशीर है, पीड़ा को
अंगार में बदलने वाली तासीर है। यह ज्वालामुखी की तरह फूटती है और बन्धनमुक्त
कराने के लिए क्रान्ति-पथ बन जाती है।
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